- यह लेख भारत को विरोधी विदेशी ताकतों द्वारा रचे गये सोशल इंजीनियरिंग और डिजिटल माध्यम से फैलाये भ्रामक और झूठे समाचारों के चक्रव्यूह के प्रति सावधान करने के लिखा है।
- देश के सामाजिक और आर्थिक विकास को लेकर भारत सरकार की परिकल्पना को साकार करने में ए आई एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है। परंतु विडंबना है कि यह रूपरेखा परोक्ष रूप से बिग टेक के तंत्र पर आश्रित है जो नागरिकों के निजी डेटा को जोखिम में डालता है और देश को डिजिटल उपनिवेशीकरण का निशाना बनाता है।
- भारतीय तकनीकी कार्यबल ए आई आविष्कारों के रचयेता के बजाय सफेदपोश मजदूर बन कर रह गया है।
- स्वदेशी डिजिटल बुनियादी ढांचे की कमी से भारत के आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप का ख़तरा उत्पन्न होता है।
- अपना डिजिटल बुनियादी ढांचा बनाने हेतु भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका स्वदेशी ए आई मॉडल पश्चिमी आख्यानों से अप्रभावित रहे और भारतीय मूल्यों पर आधारित हो।
[संपादक का नोट: यह लेख भारत के लिए स्वदेशी डिजिटल आख्यान बनाने और पश्चिमी बिग टेक तंत्र पर अपनी निर्भरता कम करने की आवश्यकता पर दो-भाग की श्रृंखला का हिस्सा है। श्रृंखला के पहले भाग में उन तंत्रों को उजागर करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिनके माध्यम से बिग टेक तंत्र भारत विरोधी और हिंदू विरोधी आख्यानों के व्यापक प्रचार-प्रसार का माध्यम बन गया है। इसमें भारत के भीतर से उठने वाली प्रतिरोध की आवाज़ों को भी उजागर किया गया है – उन भारतीय उद्यमियों और ए आई स्टार्टअप्स की आवाज़ें जो स्वदेशी डिजिटल आख्यान के निर्माण में अपना योगदान दे रहे हैं।
यह लेख, जो इस श्रृंखला का दूसरा हिस्सा है, इस बात पर गहराई से चर्चा करेगा कि कैसे बड़ी बड़ी तकनीकी कंपनियाँ उचित विनियामक ढाँचे की कमी का फ़ायदा उठाकर भारतीय नागरिकों से मूल्यवान व्यक्तिगत डेटा चुराती हैं और भारत का इस्तेमाल मुनाफ़ा कमाने के लिए करती हैं। लेख में तर्क दिया गया है कि अगर इस व्यवस्था को यूँही अनियंत्रित छोड़ दिया गया, तो इसका भारत की संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा पर लंबे समय के लिए हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे देश विभिन्न बाहरी ताकतों के हस्तक्षेप के प्रति कमज़ोर हो सकता है।]
आज के समय में भारत सोशल मीडिया पर पूरी तरह से निर्भर है। अब इसी बात को ले लीजिए कि सभी भारतीय सरकारी विभागों के सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर अकाउंट हैं। भारत सरकार से जुड़े इन आधिकारिक एक्स हैंडल्स से की गयी पोस्ट्स के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति संचालित की जाती है। यही नहीं, इन पोस्ट्स को अक्सर भारत सरकार और उसके राजनेताओं के बारे में समाचार और जानकारी के सबसे विश्वसनीय स्रोत के रूप में देखा जाता है। वास्तव में, यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि एक्स भारत सरकार के लिए जनता से जुड़ने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता की राय को समझने के लिए एक आवश्यक साधन बन गया है।
क्या भारत को यह चिंताजनक नहीं लगना चाहिए कि एक विदेशी, और विशेष तौर पर पश्चिमी, सोशल मीडिया प्लेटफार्म भारत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति और यहां तक कि उसकी वैश्विक छवि को लेकर जनता की धारणाओं को बनाने और बिगाड़ने की इस कदर क्षमता रखता है? क्या भारत को इस बात से ज़रा भी विचलित नहीं होना चाहिए कि एक विदेशी सोशल मीडिया कंपनी इतनी अधिक शक्तिशाली है कि वह उसकी ख़ुद की जनता की राजनीतिक विचारधाराओं को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखती है? यह देखते हुए कि सभी मुख्यधारा के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स एक तयशुदा पश्चिमी ढांचे के भीतर काम करते हैं और भारत के राष्ट्रीय हितों से दूर दूर तक उनका कोई सरोकार नहीं है, क्या भारत सरकार को अपने स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स विकसित करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए?
राजीव मल्होत्रा और विजया विश्वनाथन ने “Snakes in the Ganga: Breaking India 2.0” में हमें अमेरिका के कॉर्पोरेट जगत में Wokeism (एक आधुनिक विचारधारा जो पूंजीवाद और साम्यवाद का मिला जुला स्वरूप है) के बढ़ते प्रभाव को लेकर सचेत किया है। वे अमेरिका के कार्यस्थलों पर क्रिटिकल रेस थ्योरी (CRT) के जबरन थोपे जाने के मुद्दे को लेकर पाठक को सचेत करते हैं। साथ ही जिस प्रकार से मेरिटोक्रेसी यानि योग्यता के सिद्धांत पर हमले किए जा रहे है, वे उस की भी बात करते हैं, क्योंकि कॉर्पोरेट प्रबंधन से अक्सर “CRT के समर्थकों द्वारा तैयार की गई आधिकारिक नीतियों को अपनाने” की अपेक्षा की जाती है। ये लेखक आगे तर्क देते हैं कि जिस प्रकार क्रिटिकल रेस थ्योरी ने अमेरिकी कार्यस्थलों को प्रभावित किया है, उसी प्रकार यह उन एल्गोरिदम में भी समा गयी है जो यह निर्धारित करते हैं कि सोशल मीडिया पर विभिन्न एकाउंट्स और भाँति भाँति की पोस्ट्स के साथ कैसा व्यवहार किया जाये। [1]
आसान शब्दों में इसे समझें तो अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत, शैक्षणिक संस्थानों और सांस्कृतिक क्षेत्रों पर हावी होने वाला woke सिद्धांत, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को भी प्रभावित करता है। इन प्लेटफॉर्म्स को संचालित करने वाले एल्गोरिदम इस woke विमर्श से प्रभावित होते हैं। इसके परिणामस्वरूप पूरा प्लेटफ़ार्म ही wokesim की चपेट में आ जाता है क्योंकि ये एल्गोरिदम ही तय करते हैं कि कौन सी पोस्ट्स आपत्तिजनक हैं, कौन से विषय महत्वपूर्ण हैं और किन पर चुप्पी साधी जानी चाहिए, वग़ैरह वग़ैरह। यह पश्चिमी woke विमर्श इन सभी मुद्दों पर सोशल मीडिया के पूर्वाग्रहों को आकार देता है।
भारत इस प्रक्रिया में हताहत हो रहा है। पश्चिमी सोशल मीडिया पर अपनी भारी निर्भरता के कारण, यह अब अपने सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को स्वतंत्र रूप से निर्धारित नहीं कर पा रहा है । पश्चिमी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स एजेंडा निर्धारित करते हैं, जिससे भारतीय जनता और यहां तक कि राजनेता भी निष्क्रिय कठपुतली मात्र बन के रह जाते हैं। यानि अपने ख़ुद के देश का न्यूज़ एजेंडा तय करने में देश के ही लोगों की कोई भूमिका नहीं रह जाती। सभी बस सर्वशक्तिमान सोशल मीडिया की तरफ़ टकटकी बांध देखते रहते हैं कि आख़िर अब ऊँट किस करवट बैठेगा!
इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स द्वारा भारतीय नागरिकों के निजी डेटा का स्वतंत्र रूप से उपयोग करके अति प्रभावशाली एल्गोरिदम विकसित करने का मुद्दा भी है। हैरानी की बात तो यह है कि विदेशी टेक कंपनियों द्वारा बनाये गये ये एल्गोरिदम भारतीय नागरिकों के बारे में भारत सरकार से भी कहीं ज़्यादा जानते हैं। इस समस्या की ज़िम्मेदार अंततः सरकार ही है जो बिना चीज़ों को सूक्ष्मता से जाँचे परखे पश्चिमी डिजिटल तंत्र को “विकास के भागीदार” के रूप में रातोंरात अपना लेती है। सरकार पश्चिम की बड़ी-बड़ी तकनीकी कंपनियों को बिना किन्ही उचित सुरक्षा उपायों और प्रतिबंधों के अप्रतिबंधित पहुँच की अनुमति देने के बड़े नतीजों पर विचार करने में विफल रह जाती है।
बिग टेक डिजिटल तंत्र के संबंध में भारत के लिए चिंता के मुख्य क्षेत्र हैं:
- भारत सरकार की डिजिटल भारत सरीखी पहलों की बिग टेक तंत्र पर अत्यधिक निर्भरता।
- भारत को अपने स्वयं के डेटा बैंक विकसित करने और भारतीय नागरिकों के मूल्यवान डेटा को विदेशी कंपनियों को सौंपने से रोकने के लिए समन्वित तंत्र की कमी।
- सोशल मीडिया विनियामक ढांचे की कमी।
- पश्चिमी डिजिटल तंत्र पर भारत की अत्यधिक निर्भरता सोशल इंजीनियरिंग, सामाजिक अशांति, आतंक और चुनावों को प्रभावित करने सहित आंतरिक हस्तक्षेप के विभिन्न रूपों को खुला निमंत्रण देती है।
- बिग टेक पर भारत का अति आश्रित होना देश के डिजिटल उपनिवेशीकरण को बढ़ावा देता है – नवउपनिवेशवाद का एक रूप जो देश पर बाहरी आख्यान थोपता है और भारतीयों को पश्चिमी-स्वीकृत सोच के तरीकों को अपनाने के लिए प्रभावित करता है।
बड़ी तकनीकी कंपनियों के साथ अत्यधिक सहयोग करने के ख़तरे
भारत सरकार ने मार्च 2024 में इंडियाएआई मिशन (India AI Mission) की घोषणा की, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि इस नई पहल के अन्तर्गत देश ए आई कंप्यूटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगा। [2]
सरकार ने कंप्यूट क्षमता, डेटासेट प्लेटफ़ॉर्म, इनोवेशन सेंटर, एप्लिकेशन डेवलपमेंट, स्टार्टअप फाइनेंसिंग, फ्यूचर स्किल्स और सुरक्षित और विश्वसनीय ए आई जैसी कई पहलों का समर्थन करने के लिए मिशन के लिए 10,300 करोड़ रुपये (लगभग 1.3 बिलियन अमरीकी डॉलर) से अधिक धनराशि की मंजूरी दी। सरकार इस कार्यक्रम को सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से लागू करने की योजना बना रही है। इनोवेशन सेंटर ए आई मॉडल, विशेष रूप से स्वदेशी बड़े मल्टीमोडल मॉडल (एलएमएम) और डोमेन-विशिष्ट मॉडल के लिए अनुसंधान और विकास पर ध्यान केंद्रित करेगा। [3]
भारत की ए आई परिकल्पना कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र के विकास को ध्यान में रख कर 2018 में बनाई गयी राष्ट्रीय रणनीति द्वारा निर्देशित है। नीति आयोग द्वारा तैयार यह दस्तावेज़, भारत के ए आई बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के लिए आवश्यक कदमों की रूपरेखा तैयार करता है। इसमें स्वास्थ्य सेवा, कृषि, शिक्षा, स्मार्ट शहर और बुनियादी ढाँचा, तथा स्मार्ट गतिशीलता और परिवहन जैसे प्रमुख क्षेत्रों पर प्रकाश डाला गया है।
हालाँकि, भारत की ए आई रणनीति यह भी बताती है कि इन परियोजनाओं को पश्चिमी प्रौद्योगिकी समूहों के साथ साझेदारी में लागू किया जाएगा। [4] उदाहरण के लिए, नीति आयोग दस्तावेज़ कृषि क्षेत्र के लिए AI App विकसित करने और लागू करने के लिए Microsoft के साथ सहयोग के बारे में बात करता है:
Microsoft ने ICRISAT के सहयोग से, Microsoft Cortana Intelligence Suite द्वारा संचालित एक AI बुवाई ऐप विकसित किया, जिसमें मशीन लर्निंग यानि यंत्र शिक्षण और पावर BI शामिल हैं। यह ऐप भाग लेने वाले किसानों को बुवाई की इष्टतम तिथि पर बुवाई संबंधी सलाह भेजता है। सबसे अच्छी बात यह है कि किसानों को पूंजीगत व्यय करने के लिए अपने खेतों में कोई यंत्र लगाने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें बस एक फीचर फोन की आवश्यकता थी जो टेक्स्ट संदेश प्राप्त करने में सक्षम हो। सलाह में आवश्यक जानकारी शामिल थी, जिसमें इष्टतम बुवाई तिथि, मिट्टी परीक्षण-आधारित उर्वरक आवेदन, खेत की खाद का आवेदन, बीज उपचार, इष्टतम बुवाई गहराई, और बहुत कुछ शामिल था। ऐप के साथ मिलकर, एक व्यक्तिगत ग्राम सलाहकार डैशबोर्ड ने मिट्टी के स्वास्थ्य, अनुशंसित उर्वरक और सात-दिवसीय मौसम पूर्वानुमान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की। 2017 में, इस कार्यक्रम का विस्तार आंध्र प्रदेश और कर्नाटक राज्यों में खरीफ फसल चक्र (वर्षा ऋतु) के दौरान मूंगफली, रागी, मक्का, चावल और कपास सहित कई फसलों के लिए 3,000 से अधिक किसानों तक पहुँचाने के लिए किया गया था। फसलों में उपज में 10% से 30% तक की वृद्धि हुई। [5]
स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में AI के उपयोग के लिए इसी तरह के सहयोग मौजूद हैं:
नीति आयोग एक प्रायोगिक परियोजना के रूप में मधुमेह रेटिनोपैथी का जल्द पता लगाने के लिए एक तकनीक शुरू करने के लिए Microsoft और Forus Health के साथ काम कर रहा है। Forus Health द्वारा विकसित 3NNethra एक पोर्टेबल उपकरण है जो आँखों की समस्या की जाँच कर सकता है। Microsoft के रेटिना इमेजिंग API का उपयोग करके इस डिवाइस में AI क्षमताओं को एकीकृत करने से 3Nethra डिवाइस के संचालकों को तब भी AI-संचालित जानकारी प्राप्त करने में सक्षम बनाता है, जब वे क्लाउड से शून्य या रुक-रुक कर कनेक्टिविटी वाले दूरदराज के क्षेत्रों में नेत्र जाँच शिविरों में काम कर रहे होते हैं। परिणामी प्रौद्योगिकी समाधान छवि कैप्चर के साथ गुणवत्ता के मुद्दों को भी हल करता है और कैप्चर की गई छवि की उपयोगिता का मूल्यांकन करने के लिए सिस्टम जाँच भी करता है। [6]
भारत के विविध क्षेत्रों में AI को लागू करने के लिए बड़ी तकनीक के साथ सहयोग करने में सैद्धांतिक रूप से कुछ भी गलत नहीं है। हालाँकि, इन सहयोगों को भारत के राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए। परंतु AI तकनीकों की आक्रामक प्रकृति और बिग टेक के वैश्विक वर्चस्व को देखते हुए, यह संतुलन हासिल करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
परंतु विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी तकनीकी समूह भारत के डेटा सुरक्षा नियमों में खामियों का फायदा उठाकर संवेदनशील और गोपनीय डेटा की एक विस्तृत श्रृंखला तक पहुँचते हैं, जिसका इस्तेमाल आवश्यकता पड़ने पर भारत के विरुद्ध अनेकों प्रकार से किया जा सकता है।
जो लोग बिग टेक के काम करने की प्रक्रिया से अनभिज्ञ हैं, उन्हें इस प्रकार की बातें एक षड्यंत्र जैसी लग सकती हैं। परंतु सच यही है कि उपनिवेशवाद का कुचक्र इसी तरह से काम करता है। उपनिवेशवाद के पहले चरण में, उपनिवेशवादियों ने मूल आबादी का दमन करने और उन्हें चुप कराने हेतु प्रत्यक्ष और खुले तौर पर दमनकारी रणनीति का इस्तेमाल किया। दूसरे चरण, नवउपनिवेशवाद में, रणनीति अधिक सूक्ष्म और परिष्कृत हो गई। भारत को स्वतंत्रता मिलने और अपनी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने के बाद भी, अंग्रेजी भाषा की कथित श्रेष्ठता के प्रचार और भारतीय भाषाओं, परंपराओं और संस्कृति के अपमान के माध्यम से उपनिवेशवाद फिर से उभरा। भारत में नवउपनिवेशवाद शिक्षा जगत, मीडिया, लोकप्रिय संस्कृति तंत्र, आदि में व्याप्त भारतीय विरोधी आख्यानों के माध्यम से भी फैला। अब, हम उपनिवेशवाद के तीसरे चरण को देख रहे हैं: डिजिटल उपनिवेशीकरण, जहाँ भूतपूर्व साम्राज्यवादी भूतपूर्व उपनिवेशों की आबादी से डेटा प्राप्त करके अपने वैश्विक वर्चस्व को और अधिक मजबूत करते हैं।
राजीव मल्होत्रा इस घटना के ऐतिहासिक समानांतरों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं:
इस घटना को देखकर अठारहवीं शताब्दी के भारतीय अभिजात वर्ग की याद आती है, जिन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर भारतीय संस्कृति की कमजोरियों को उजागर किया और देश की कमजोरियों को पहचानने में उनकी मदद की। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारतीयों का अध्ययन करने, व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार के मनोवैज्ञानिक मॉडल बनाने और समाज के विभिन्न वर्गों से निपटने के लिए नीतियाँ स्थापित करने के लिए इंडोलॉजी यानि भारत विद्या का आविष्कार किया। आज की शब्दावली में, हम कह सकते हैं कि भारत विद्या ने बड़े डेटा को संकलित करने और मॉडल बनाने के लिए निगरानी के उद्देश्य को पूरा किया। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद, यह भूमिका अमेरिका को सौंप दी गई, जिसने दक्षिण-एशिया अध्ययन की शैक्षणिक शाखा की शुरुआत की और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मानचित्रण अभ्यास को नई ऊंचाइयों पर ले गया। नई डिजिटल प्रौद्योगिकियाँ इस उद्यम में नवीनतम विकास मॉडल हैं। [7]
बड़ी टेक कंपनियां भारतीय डेटा का कैसे दोहन करती हैं
भारत के लोग फेसबुक, इंस्टाग्राम और एक्स सरीखे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अत्याधिक आदी हैं। समस्या यह है कि भारत में निजी डेटा की सुरक्षा हेतु नियमों के अभाव के कारणवश सोशल मीडिया दिग्गजों को आम भारतीयों के संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा का दोहन करने की पूरी छूट है।
यूरोपीय संघ अपने नागरिकों को मजबूत जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) के माध्यम से सुरक्षा प्रदान करता है। 2018 में EU द्वारा अधिनियमित यह क़ानून विश्व भर के उन संगठनों को यूरोपीय संघ के नागरिकों के डिजिटल डेटा की सुरक्षा हेतु उत्तरदायी बनाता है जो EU में लोगों से संबंधित डेटा को लक्षित या एकत्र करते हैं। विनियमन अपने सुरक्षा और गोपनीयता मानकों के उल्लंघन के लिए सख्त जुर्माना लगाता है, जिसमें दसियों मिलियन यूरो तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। यह क़ानून स्पष्ट रूप से उन विशिष्ट परिस्थितियों को परिभाषित करता है जिनके तहत व्यवसायों को EU नागरिकों के डेटा को संसाधित करने की अनुमति है। [8]
अमेरिका में, डेटा गोपनीयता कानून ऐतिहासिक रूप से EU की तुलना में ढीले रहे हैं, जो गोपनीयता सुरक्षा के लिए व्यक्तिपरक व्याख्याओं पर निर्भर हैं। हालाँकि, 2023 से, अमेरिका ने अपने डेटा सुरक्षा कानूनों को नये सिरे से तैयार करना शुरू कर दिया है ताकि वह EU के GDPR ढांचे के साथ सामंजस्य बिठा सके।[9]
नागरिकों के निजी डेटा की सुरक्षा को लेकर भारत ने भी अगस्त 2023 में डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम (DPDPA) पारित किया। भारत-स्थित प्रकाशन ‘Bar and bench के एक लेख में भारत के नए डेटा संरक्षण अधिनियम की तुलना यूरोपीय संघ के नियमों से की गई है। यह लेख रेखांकित करता है कि दोनों के बीच समानताएँ होने के बावजूद, DPDPA कई क्षेत्रों में कमतर है, जिसमें व्यक्तिगत डेटा और सीमा पार डेटा हस्तांतरण का दायरा शामिल है।
सीमा पार डेटा हस्तांतरण के विषय में, लेख में कहा गया है, “चूँकि DPDPA अभी तक लागू नहीं हुआ है, इसलिए भारतीय सरकार द्वारा बहुप्रतीक्षित आधिकारिक प्रक्रियात्मक नियमों और विनियमों के तहत कोई भी पूर्ण हस्तांतरण तंत्र अधिसूचित नहीं किया गया है। वर्तमान में, अधिनियम दुनिया के हर एक देश में व्यक्तिगत डेटा के हस्तांतरण को सक्षम बनाता है, जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना के माध्यम से ऐसे अधिसूचित देशों में डेटा हस्तांतरण को प्रतिबंधित करने हेतु कोई नये नियम नहीं लागू करती। यद्यपि, GDPR कड़े डेटा हस्तांतरण नियम लागू करता है। पहला नियम तीसरे देश में व्यक्तिगत डेटा की पर्याप्त सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हस्तांतरण प्रभाव मूल्यांकन (TIA) का निष्पादन है। इसके अतिरिक्त, सभी सामान्य कॉर्पोरेट नियम और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तंत्र तीसरे देश में स्थित इकाई पर बाध्यकारी होंगे, जिसमें डेटा सुरक्षा के लिए यूरोपीय संघ पर लागू मानक अनुबंध संबंधी खंड शामिल करने की जिम्मेदारी होगी। [10]
चूंकि भारत का नया डेटा सुरक्षा क़ानून अभी तक लागू नहीं हुआ है, इसलिए इसका प्रभाव देखा जाना बाकी है। परंतु मौजूदा स्थिति यह है कि बिग टेक द्वारा नियंत्रित ए आई तंत्र भारतीय नागरिकों के raw डेटा तक आसानी से पहुंच सकती है। ये तकनीकी तंत्र भारतीय नागरिकों के मनोवैज्ञानिक प्रोफाइल विकसित करने के लिए इस डेटा को संसाधित करते हैं। इस अति प्रभावशाली मनोवैज्ञानिक मानचित्रण का उपयोग भारत के खिलाफ मनोवैज्ञानिक प्रोपोगैंडा कराने के लिए किया जा सकता है। यही नहीं, इसका इस्तेमाल जनसंपर्क अभियानों में जनता की राय पर असर डालने हेतु और यहां तक कि चुनावों को प्रभावित करने के लिए भी किया जा सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि सरकार अपने ख़ुद के नागरिकों का संवेदनशील डेटा विदेशी कंपनियों को सौंपने के लिए अति आतुर प्रतीत हो रहे है। ये कंपनियां शोध करने का दावा करती हैं, लेकिन उनका असली मकसद भारतीय नागरिकों के विशिष्ट वर्गों के डेटा तक पहुंच बनाना है।
अपनी पुस्तक “Artificial Intelligence and the Future of Power: 5 Battlegrounds” में, राजीव मल्होत्रा ने 2018 के हार्वर्ड प्रोजेक्ट “Mapping the Kumbh Mela” पर चर्चा की, जहां कई विदेशी शोध एजेंसियों को डेटा इकट्ठा करने के लिए आमंत्रित किया गया था। मल्होत्रा लिखते हैं कि उन्होंने हार्वर्ड परियोजना पर गहन शोध किया ताकि उनकी डेटा अधिग्रहण रणनीति का पता लगाया जा सके, जिसे भारत के लाभ के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य अनुसंधान के रूप में प्रस्तुत किया गया था। उन्होंने भारत सरकार को चेतावनी दी कि हार्वर्ड का उद्देश्य देश भर में लगभग दस लाख भारतीयों से सामाजिक-जनसांख्यिकीय, डीएनए और मनोवैज्ञानिक डेटा एकत्र करना है। मल्होत्रा ने अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत करने के लिए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मुलाकात की, उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को ऐसे अध्ययनों के लिए अपने स्वयं के शोध संगठनों पर भरोसा करना चाहिए।
फिर भी, हार्वर्ड परियोजना तयशुदा योजना के अनुसार आगे बढ़ी, और उनकी जानकारी के अनुसार, यह स्थापित करने के लिए कोई बौद्धिक संपदा समझौता औपचारिक रूप से हस्ताक्षरित नहीं किया गया था कि जो डेटा हॉर्वर्ड द्वारा एकत्रित किया जाएगा, उस पर भारत का अधिकार है और भारतीय अधिकारियों को डेटा की एक प्रति प्राप्त करने का भी कोई प्रावधान नहीं था, लेखक कहते हैं। [11]
विदेशी संगठनों और संस्थानों के साथ किए जाने वाली इस प्रकार की सांझेदारियाँ, जिनमे प्रत्यक्ष तौर पर भारत को लाभ मिल रहा हो, अक्सर बहुत सी शर्तों के साथ आती हैं। ये शर्तें ऐसी भी हो सकती हैं जो देश की संप्रभुता और अखंडता और उसकी आंतरिक सुरक्षा तक को ख़तरे में डालने की क्षमता रखती हों। इस मामले में, भारत सरकार को एक विदेशी संगठन को भारतीय नागरिकों का मूल्यवान और गोपनीय डेटा सौंपना पड़ा। सामाजिक विज्ञान अनुसंधान, विशेष रूप से नृवंशविज्ञान और समाजशास्त्रीय अनुसंधान, एक बड़ी आबादी से संबधित डेटा एकत्र कर उसका उपयोग औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से प्रभावित सामान्यीकरण करने की कला में माहिर हैं। इसलिए, भारत को अपने नागरिकों के डेटा तक विदेशी पहुँच को विनियमित करने के लिए एक ढाँचा स्थापित करने की आवश्यकता है। जब ऐसे सहयोग होते हैं, तो कड़े समझौतों के माध्यम से देश को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एकत्रित डेटा का स्वामित्व भारत ख़ुद बनाए रखे।
विशेषज्ञों के अनुसार, मुख्य समस्या भारत की डेटा संपत्ति का अधिकांश भाग कच्चा और असंगठित होना और समस्या को हल करने के लिए व्यवस्थित प्रयास का अभाव है:
अधिकांश नेता भली भाँति जानते हैं कि भारत के पास आनुवंशिकी, संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों की विशाल विविधता को दर्शाता एक विस्तृत बिग डेटा समूह है। हालाँकि, भारत की अधिकांश बिग डेटा संपदा कच्चे और असंगठित रूप में हैं और एकीकृत नहीं हैं; यह डेटा कई बार ऐसे मंत्रालयों के अंर्तगत आता है जिनका इस क्षेत्र से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। इस तरह के खंडित डेटा को कभी-कभी विदेशी संस्थाओं द्वारा निकाला जा रहा है जो भारतीय अधिकारियों की तुलना में इसके मूल्य को अधिक समझते हैं… जब तक भारत की डेटा संपत्तियों का उचित मूल्यांकन नहीं किया जाता और उन्हें नियमों के साथ एक उद्योग में व्यवस्थित नहीं किया जाता है, तब तक अव्यवस्था की स्थिति बनी रहेगी जिसमें भारतीय स्टार्ट-अप्स के पास अपने न्यूरल नेटवर्क्स को प्रशिक्षित करने के लिए कई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर डेटा सेट उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए, भारतीय ए आई परियोजनाएं अक्सर यूएस और यूरोपीय डेटासेट का उपयोग करती हैं। लेकिन वे डेटासेट पश्चिम की जनसांख्यिकी के प्रति पक्षपाती हैं जो भारतीय जनसांख्यिकी से काफी अलग है। विदेशी डेटा पर प्रशिक्षित ए आई तंत्र यूरोप-केंद्रित पूर्वाग्रहों को अपने में सम्मिलित अकड़ लेते हैं; यह स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक न्याय और वित्त में सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील अनुप्रयोगों में हानिकारक है। [12]
देसी टेक वर्कर्स: आविष्कारक या सफ़ेदपोश कुली?
कृत्रिम बुद्धिमत्ता को लेकर भारत की जो राष्ट्रीय रणनीति है, वह देश में ए आई को अपनाने के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण चुनतियों की पहचान करती है जैसे कि ए आई विशेषज्ञता, प्रशिक्षण अवसर और कुशल जनशक्ति। रणनीति दस्तावेज़ ए आई के क्षेत्र में ली जाने वाली सीमित शैक्षणिक अनुसंधान पहलों पर भी प्रकाश डालता है, जो कुछ शैक्षणिक संस्थानों तक ही सीमित हैं। इसके अतिरिक्त, यह रेखांकित करता है कि भारत में ए आई अनुसंधान में निजी क्षेत्र का योगदान मामूली रहा है। [13]
भारत की राष्ट्रीय ए आई रणनीति यह भी बताती है कि भारत के अधिकांश विज्ञान, तकनीकी शिक्षा, इंजीनियरिंग और गणित आदि विषयों के स्नातक अधिकतर नियमित आईटी विकास पर केंद्रित नौकरियां लेते हैं। ए आई अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करने वाले स्नातकों की संख्या न के बराबर हैं, और इनमें से भी अधिकांश विदेशी अनुसंधान संस्थानों या टेक कंपनियों में अपनी विशेषज्ञता लागू करना अधिक पसंद करते हैं:
2016 में कुल 2.6 मिलियन स्नातकों ने विज्ञान, तकनीकी शिक्षा, इंजीनियरिंग, और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से अपनी डिग्री हासिल की। इस हिसाब से जितने स्नातक साल भर में भारतीय विश्वविद्यालयों से उत्तीर्ण होते हैं, यह संख्या चीन के बाद दूसरे स्थान पर है और संयुक्त राज्य अमेरिका में हर साल उत्तीर्ण होने वाले स्नातकों से 4 गुना अधिक है। इस प्रकार उभरती प्रौद्योगिकियों में innovation यानि नवाचार को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक प्रतिभा समूह का निर्माण हुआ। हालांकि, निराशाजनक रूप से, इसमें से अधिकांश स्नातक नियमित आईटी विकास से जुड़ी नौकरियाँ पाकर ही खुश हो जाते हैं और अनुसंधान और नवाचार पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करते। समस्या को और भी गंभीर बनाते हुए, शोध पर केंद्रित इस छोटी आबादी का अधिकांश हिस्सा लगभग हमेशा उन्नत डिग्री (मास्टर्स या पीएचडी डिग्री) हासिल करना पसंद करता है ताकि बाद में अपनी विशेषज्ञता को विदेशों में लागू कर सके। [14]
रणनीति दस्तावेज़ हालाँकि यह स्वीकार करता है कि यद्यपि विप्रो, इंफोसिस और टीसीएस जैसी अग्रणी आईटी कंपनियाँ उन्नत प्रौद्योगिकी समाधानों को लागू करने में सबसे आगे हैं, लेकिन साथ ही इस बात को भी उठाता है कि अनुसंधान के क्षेत्र में में इन कंपनियों का योगदान सीमित रहा है। इससे एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है: क्या भारत का तकनीकी कार्यबल वास्तविक तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देने के बजाय एक कुलीन और उच्च-स्तरीय लेकिन clerical यानी लिपिक कार्यबल के रूप में देखे जाने से संतुष्ट है? एक स्पष्ट तर्क यह है कि भारत अभी भी एक विकासशील देश है, और कई शिक्षित व्यक्तियों की प्राथमिकता लाभदायक रोजगार हासिल करना और अपने परिवारों की वित्तीय स्थिति में सुधार करना है। नतीजतन, अधिकांश भारतीय वित्तीय सुरक्षा की कीमत पर अत्याधुनिक शोध पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते।
वित्तीय और जीवनशैली कारणों के अलावा, विशेषज्ञों का तर्क है कि उद्देश्यपूर्ण देशभक्ति की कमी और भारत की सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत को इसकी विकास कहानी के साथ जोड़ने वाले भव्य आख्यान से युवाओं को जोड़ने में सरकार की विफलता के कारण विज्ञान, तकनीकी शिक्षा, इंजीनियरिंग, व गणित जैसे विषयों में डिग्री हासिल करने वाले भारतीय स्नातक भारत में रहने के बजाय सिलिकॉन वैली या पश्चिम में कहीं और काम करना पसंद करते हैं। यह एकजुट राष्ट्रीय चेतना की कमी और अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व की प्रबल भावना की कमी की ओर इशारा करता है।
राजीव मल्होत्रा बताते हैं [15] कि भारत की दूरसंचार और आईटी क्रांति का नेतृत्व मुख्य रूप से पश्चिमी कंपनियों ने किया है। भले ही भारतीय इंजीनियरों ने इस क्रांति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, परंतु सच्चाई यह है कि वे केवल अपने दिमाग को पश्चिमी कंपनियों को किराए पर दे रहे हैं जिनके पास बौद्धिक संपदा है। इस प्रकार, भारत के प्रौद्योगिकी क्षेत्र को वास्तव में अधिकांश भारतीय इंजीनियरों द्वारा किए गए अभूतपूर्व काम से कोई लाभ नहीं हुआ है। मल्होत्रा आगे तर्क देते हैं कि भारतीय मॉडल ने आउटसोर्सिंग जैसी घटनाओं के माध्यम से अल्पकालिक लाभ पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि चीन ने अत्याधुनिक तकनीकों में निवेश करने पर ध्यान दिया, अनुसंधान और विकास के बारे में गंभीरता से सोचा और चीनी तकनीकी कंपनियों के लिए काम करने के लिए दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को नौकरी पर रखा। मल्होत्रा ने आगे कहा कि चीन ने अपनी सभ्यता और संस्कृति के इर्द गिर्द बुने विमर्श के आधार पर अपने स्वदेशी ए आई अनुप्रयोगों को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि भारत ने पश्चिमी बिग टेक तंत्र द्वारा निर्धारित मार्ग पर बिना किसी आलोचना के चलना शुरू कर दिया। उन्होंने देश के तकनीकी कार्यबल को घरेलू नवाचार के लिए जुटाने में असमर्थता के लिए “भारत के नए-नये अरबपतियों” को भी दोषी ठहराया।
लेखक ने कहा कि भले ही इन अरबपतियों ने बहुत बड़ी मात्रा में निजी संपत्ति बनाई हो, लेकिन वे इस आय का एक हिस्सा दीर्घकालिक विश्व स्तरीय बौद्धिक संपदा विकसित करने में पुनर्निवेश करने में विफल रहे:
कल्पना कीजिए कि अगर भारतीय तकनीकी दिग्गजों ने अपने मुनाफे का 10% से 25% रणनीतिक बौद्धिक संपदा के अनुसंधान और विकास में निवेश किया होता, न कि केवल विदेशी ग्राहकों को सस्ते श्रम बेचने के लिए। कल्पना कीजिए कि अगर भारतीय सरकार के योजनाकारों ने यह समझ लिया होता कि विदेशी मुद्रा के अल्पकालिक उत्पादन को अधिकतम करने से वर्तमान संकट और बढ़ जाएगा, जिसमें भारत महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों के लिए अमेरिका और चीन पर निर्भर है। [16]
इसलिए, भारतीय तकनीकी कार्यबल एक अजीब चौराहे पर है: वे पश्चिमी ए आई उत्पादों में अपनी विशेषज्ञता का योगदान दे रहे हैं, जिनका उपयोग भारत को डिजिटल रूप से उपनिवेश बनाने के लिए किया जा सकता है! इससे एक भयावह दुष्चक्र बनता है जिसे केवल तभी तोड़ा जा सकता है जब भारतीय सरकार अपने तकनीकी कार्यबल को बनाए रखने और देश के भीतर ए आई अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए ठोस उपाय करे। यह महत्वपूर्ण है कि भारतीय कंपनियाँ इस शोध का नेतृत्व करें, जो भारतीय लोकाचार के लिए प्रासंगिक मॉडल विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करे। पश्चिमी तकनीकी कंपनियों के साथ सरल और गैर-आलोचनात्मक सहयोग समाधान नहीं है।
डिजिटल चालबाज़ी का भेद खोलना
यह सुनने में भले ही अजीब लगे, परंतु बिग टेक का शक्तिशाली तंत्र भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बना रहा है। Google, Facebook, LinkedIn और X जैसी कंपनियाँ अति प्रभावशाली AI एल्गोरिदम का उपयोग करके न केवल यह तय करती हैं कि भारतीयों को किन मुद्दों पर सोचना चाहिए, बल्कि यह भी कि उन्हें उनके बारे में कैसे सोचना चाहिए।
सोशल मीडिया एल्गोरिदम यह निर्धारित करते हैं कि किन हैशटैग्स को अधिक प्रमुखता मिलनी चाहिए और किन हैशटैग्स को कम महत्व दिया जाना चाहिए। भारत के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं ने हाल ही में 9 जून, 2023 को जम्मू में हुए आतंकी हमले के बाद सोशल मीडिया पर “ऑल आईज़ ऑन रियासी” ट्रेंड शुरू किया, जिसमें कम से कम 9 हिंदू तीर्थयात्री मारे गए और 40 घायल हो गए। इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के संदर्भ में “ऑल आईज़ ऑन राफ़ा” ट्रेंड की तरह, “ऑल आईज़ ऑन रियासी” सोशल मीडिया पर वायरल हो गया।
हालांकि, कुछ उपयोगकर्ताओं ने इंस्टाग्राम पर हैशटैग साझा करने में समस्याओं का अनुभव करने की सूचना दी, जिसके कारण प्लेटफ़ॉर्म द्वारा चयनात्मक सेंसरशिप के आरोप लगे। इस विवाद ने सोशल मीडिया पर #UninstallInstagram ट्रेंड को जन्म दिया, क्योंकि नेटिज़ेंस ने कथित पाखंड और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के लिए प्लेटफ़ॉर्म की आलोचना की। [17]
भारत के 2024 के आम चुनावों में झूठी और भ्रामक खबरें फैलाने के लिए डिजिटल मीडिया का बढ़ चढ़कर इस्तेमाल हुआ। भारतीय राजनेताओं के डीपफेक यानी डिजिटल माध्यम से उनकी तस्वीरें और हाव भाव की नकल कर बनाये गये कृत्रिम चित्र और वीडियो, चुनावों के दौरान धड़ल्ले से सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाये जाने लगे। यही नहीं, भारतीय राजनेताओं के ऐसे कृत्रिम वीडियोज़ का तेज़ी से प्रचार प्रसार होने लगा जिनमे डीपफ़ेक तकनीक का इस्तेमाल कर इन्हें मनगढ़ंत बयानबाज़ी करते दिखाया गया। Global Witness और Access Now द्वारा की गई एक जांच में कथित तौर पर पाया गया कि Google के स्वामित्व वाले YouTube ने भारत में चुनावों के बारे में गलत जानकारी वाले 40 से अधिक विज्ञापनों को मंजूरी दी, जिससे मतदान प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हुई। इन झूठे विज्ञापनों का उद्देश्य मतदाताओं को दबाना, सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देना और चुनावी प्रक्रिया पर हमला करना था। एक विज्ञापन में झूठा दावा किया गया कि लोगों को वोट देने के लिए आईडी की आवश्यकता नहीं है, जबकि दूसरे ने दावा किया कि महिलाएं टेक्स्ट मैसेज के माध्यम से वोट कर सकती हैं। [18]
Firstpost के हाल ही में प्रकाशित एक लेख में 2024 के चुनावों में पश्चिमी हस्तक्षेप की आलोचना की गई है, जिसमें पश्चिमी मीडिया और शिक्षाविदों के गठजोड़ पर प्रकाश डाला गया है। लेख इस बात को रेखांकित करता है कि कैसे ये संस्थाएँ देश के आम चुनावों के दौरान ग़लत और भ्रामक सूचनाओं को बढ़ाने के लिए डिजिटल तंत्र का लाभ उठाती हैं:
यह कई सिर वाला, विश्व भर में फैला हुआ, भारत विरोधी आख्यान कई रूप लेता है। यह कभी राय-लेखकों या विदेश में स्थित शिक्षाविदों के सदस्यों द्वारा बिना जानकारी के की गई बकवास या दंभपूर्ण टिप्पणी का रूप ले लेता है, तो कभी एक ऐसी पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट बन जाता है जो डेटा को चुन-चुन कर पेश करती हैं या किसी खास दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए घुमावदार संदर्भों में लिप्त होती हैं। इस ख़तरनाक भारत विरोधी विमर्श का प्रचार प्रसार सक्रिय और/या अनुबंधित बॉट नेटवर्क्स और जाने माने सोशल मीडिया इंफ्ल्युएंसर्स के माध्यम से भी हो सकता है। इन सभी प्रयासों के मूल में एक ही कारण है: एक व्यक्ति, नरेंद्र मोदी के प्रति प्रकट घृणा, जो उनके सभी प्रयासों और अपेक्षाओं के बावजूद भी चुनाव जीतता रहता है। [19]
आगे की राह
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के लिए अपना खुद का डिजिटल तंत्र विकसित करना और यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि यह भारत के ख़ुद के विमर्श के अनुदार चले। यदि भारत का AI तंत्र केवल पश्चिमी आख्यान की नकल करता है और उसे मजबूत करता है, तो इसका कोई उद्देश्य नहीं है। देश को भारतीय संवेदनाओं से प्रेरित एक AI तंत्र विकसित करना होगा, जिसका उद्देश्य वर्तमान AI एल्गोरिदम में मौजूद भारत विरोधी और हिंदू विरोधी पूर्वाग्रहों को दूर करना हो।
ऐसा एल्गोरिदम विकसित करने के लिए वैदिक शैक्षणिक परंपरा से जुड़े सामाजिक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, भाषाविदों और विद्वानों के एक विविध समूह को सम्मिलित करना आवश्यक है। जहां एक ओर भारतीय तकनीकी कंपनियाँ स्वदेशी AI मॉडल की संरचना के तकनीकी पहलू को सँभालेंगी, वहीं दूसरी ओर वैदिक विद्वानों को इसके आख्यान से जुड़े पहलू की देखरेख करनी चाहिए।
‘Artificial Intelligence and the Future of Power’ पुस्तक [20] सामाजिक विज्ञान के वैदिक प्रतिमान को विकसित करने के लिए अभिनव सुझाव प्रदान करती है जिन्हें AI मॉडल के संदर्भ में भी कार्यान्वित किया जा सकता है। इन विचारों को सम्मिलित करने से एक ऐसा AI तंत्र बनाने में मदद मिल सकती है जो वास्तव में भारत की अनूठी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को दर्शाता है और उसका सम्मान करता है।
- भारत को अपनी संस्कृति और सभ्यता का एक भव्य आख्यान विकसित करना चाहिए; इस भव्य आख्यान को स्वदेशी रूप से विकसित ए आई मॉडल का मार्गदर्शन करना चाहिए।
- इस भव्य आख्यान में अतीत का सरलीकृत महिमामंडन शामिल नहीं होगा, बल्कि अतीत की आलोचनात्मक पुनर्कल्पना और आधुनिक संदर्भ में इसके कल्पनाशील और अभिनव अनुप्रयोग शामिल होंगे।
- भारत के सामाजिक विज्ञानों के विऔपनिवेशीकरण को पश्चिमी समाजशास्त्र का उपयोग करने के बजाय भारतीय समाज का पुनरावलोकन करने के लिए वैदिक अवधारणाओं पुरुषार्थ (जीवन के चार प्रयास) का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
- पुरुषार्थ की वैदिक अवधारणा द्वारा परिभाषित जीवन के चार प्रयास, धर्म (ज्ञान और क्रिया के लिए आध्यात्मिक और नैतिक आधार), अर्थ (भौतिक कल्याण की खोज, जिसमें धन और आर्थिक अवसंरचना शामिल है), काम (इच्छा, संवेदी संतुष्टि, सुख और सौंदर्यशास्त्र की खोज) और मोक्ष (अंतिम अर्थ में मुक्ति) हैं।
- वैदिक सामाजिक विज्ञानों के एक नए प्रतिमान के निर्माण के संदर्भ में, अर्थ का अनुवाद अर्थशास्त्र और भूराजनीति में, काम का मनोविज्ञान जैसे विषयों में, धर्म का नैतिकता और तत्वमीमांसा में और मोक्ष का मुक्ति में किया जा सकता है।
संदर्भ
[1] Snakes in the Ganga: Breaking India 2.0 by Rajiv Malhotra and Vijaya Viswanathan, Ch 1. Dismantling the United States of America p.55-56
[2] We will have AI models designed and built in India: Rajeev Chandrasekhar – Hindustan Times; https://www.hindustantimes.com/technology/we-will-have-ai-models-designed-and-built-in-india-rajeev-chandrasekhar-101710151920398.html
[3] Press Information Bureau (pib.gov.in); https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2012375#:~:text=Aligned%20with%20the%20broader%20vision,across%20all%20strata%20of%20society.
[4] National Strategy for Artificial Intelligence (niti.gov.in); https://www.niti.gov.in/sites/default/files/2023-03/National-Strategy-for-Artificial-Intelligence.pdf
[5] Ibid. p.33-34
[6] Ibid. p. 29
[7] Artificial Intelligence and the Future of Power by Rajiv Malhotra, Ch 8. Digital Colonization, p. 215
[8] What is GDPR, the EU’s new data protection law? – GDPR.eu; https://gdpr.eu/what-is-gdpr/
[9] U.S. data privacy laws to enter new era in 2023 | Reuters; https://www.reuters.com/legal/legalindustry/us-data-privacy-laws-enter-new-era-2023-2023-01-12/
[10] The juxtaposition of Indian and European Union data protection laws (barandbench.com); https://www.barandbench.com/columns/the-juxtaposition-of-data-protection-laws-an-indian-and-european-union-perspective
[11] Artificial Intelligence and the Future of Power by Rajiv Malhotra, Ch 8. Digital Colonization, p. 216-217.
[12] bid. p. 213
[13] National Strategy for Artificial Intelligence (niti.gov.in); https://www.niti.gov.in/sites/default/files/2023-03/National-Strategy-for-Artificial-Intelligence.pdf p. 46-47.
[14] Ibid. p. 50
[15] Artificial Intelligence and the Future of Power: 5 Battlegrounds by Rajiv Malhotra, Ch 7. Technological Dependence, p. 197
[16] Ibid. p. 201
[17] Uninstall Instagram Trends After All Eyes On Reasi Hashtag Gets Hidden; Netizens Question Freedom Of Speech (jagran.com); https://english.jagran.com/viral/uninstall-instagram-trends-after-all-eyes-on-reasi-hashtag-gets-hidden-netizens-question-freedom-of-speech-vaishno-devi-attack-10166346
[18] Did YouTube green-lit ads with disinformation on Indian elections? – Firstpost; https://www.firstpost.com/explainers/youtube-ads-disinformation-indian-elections-2024-lok-sabha-polls-13756120.html
[19] How deep was Western interference in the 2024 elections? Enough smoke that warrants a thorough probe – Firstpost; https://www.firstpost.com/opinion/how-deep-was-western-interference-in-2024-elections-enough-smoke-that-warrants-a-thorough-probe-13778354.html
[20] Artificial Intelligence and the Future of Power by Rajiv Malhotra: 5 Battlegrounds, Ch 9. Psychological Hijacking, p. 227-229).