- भारत में महिलाओं के मुद्दों पर पश्चिमी मीडिया की कवरेज अतिसरालीकरण से ग्रस्त है जिसमें अधिकतर “पारंपरिक पूर्व” को “प्रगतिशील पश्चिम” के विरोध में चित्रित किया जाता है।
- आत्मकथात्मक लेखों और मानव-हित कहानी प्रारूप का व्यापक उपयोग एक पक्षपाती कथानाक को बनाए रखता है जो यह धारणा गढ़ता है कि भारतीय समाज स्वाभाविक रूप से पितृसत्तात्मक है।
- पश्चिमी मीडिया विशेष रूप से हिंदू त्योहारों पर लक्ष्य साधता है और उन्हें “पितृसत्तात्मक” और “महिला विरोधी” के रूप में प्रस्तुत करता है।
- पश्चिमी मीडिया का पाखंड भारत में हिंदू महिलाओं के मुद्दों और मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों के प्रस्तुतीकरण के बीच के व्यापक अंतर में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
- भारतीय महिलाओं के मुद्दों की कवरेज के संदर्भ में नारीवादी बयानबाजी का प्रयोग एक राजनीतिक शस्त्र के रूप में किया जाता है।
- भारत में महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों की रिपोर्टिंग को लेकर पश्चिमी मीडिया की अतिआतुरता किसी पूर्वनिर्धारित षड्यंत्र सी प्रतीत होती है।
कुछ वर्ष पूर्व एक अंतरराष्ट्रीय समाचार चैनल के लिए कार्यरत एक महिला पत्रकार के रूप में, मुझे अधिकतर परामर्श दिया जाता था कि यदि मैं भारत में महिलाओं से जुड़े मुद्दों की रिपोर्टिंग करने पर ध्यान केंद्रित करूँ तो यह मेरे कैरियर के लिए अच्छा होगा। अब जब मैं एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य करती हूँ, तब भी मुझे कुछ इसी प्रकार का परामर्श सुनने को मिलता है !
“तीसरी दुनिया के देशों” की महिलाओं पर केंद्रित मानवीय रुचि की कहानियाँ अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बहुत लोकप्रिय मानी जाती हैं। UN Women वेबसाइट के “समाचार और कहानियाँ” अनुभाग पर एक दृष्टि मात्र डालने से पता चलता है कि ये पूरा तंत्र कैसे काम करता है – हाल ही में प्रकाशित अधिकांश कहानियाँ यह धारणा बनाती हैं कि केवल “कुछ देशों” की महिलाओं को ही यौन शोषण, घरेलू हिंसा, लैंगिक भेदभाव, शिक्षा की कमी, रोज़गार के असमान अवसर, आदि मुद्दों का सामना करना पड़ता है। [1]
पश्चिमी मीडिया द्वारा “वैश्विक दक्षिण” की महिलाओं के मुद्दों की कवरेज सदा से एक घिसे पिटे ढर्रें पर चली आई है। ये एक फ़ार्मूले की भाँति है जिसके अंतर्गत अधिकतर इसी प्रकार की कहानियों को बताया या दिखाया जाता है जिनकी कथावस्तु इस बात पर केंद्रित रहती है कि किस प्रकार से पश्चिमी गैर सरकारी संगठनों के हस्तक्षेप और पहल से भारत जैसे देशों की महिलाओं का जीवन बदल गया।
भारत जैसे देशों की स्थानीय महिलाओं के लिए गए साक्षात्कारों पर केंद्रित ये कहानियाँ पाठकों को मानवीय संवेदना से जोड़ने के नाम पर इन महिलाओं के जीवन की वास्तविकताओं का सनसनीखेज और अतिरंजित संस्करण प्रस्तुत करती हैं। कथावस्तु में ऐसे दिखाया जाता है जैसे ये पश्चिमी ग़ैर सरकारी संस्थान इन स्थानीय महिलाओं को पितृसत्ता के दमनकारी चंगुल से बाहर निकाल रहे हों। संपादकीय झुकाव इन साक्ष्यों को पक्षपाती और एकतरफा परिप्रेक्ष्य देता है और यह धारणा बनाता है कि इन देशों में कुछ अंतर्निहित है जो “महिला विरोधी” है।
भारतीय महिलाओं के मुद्दों की मीडिया कवरेज सैद्धांतिक रूप से तो एक उत्तम पहल लगती है, परंतु व्यावहारिक कसौटी पर यह कुछ खरी नहीं उतरती। इस प्रकार की मीडिया रिपोर्टिंग प्राय: भारतीय महिलाओं और उनके सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश को लेकर पश्चिम की रूढ़िबद्ध धारणाओं को हवा देने का कार्य करती है। पश्चिमी मीडिया भारतीय महिलाओं के वृहत् अनुभवों की पृष्ठभूमि को सनसनीख़ेज़ बना उन्हे जबरन एक ऐसे कथात्मक ढाँचे में फ़िट कर देता है जो “पितृसत्तात्मक” भारत को “प्रगतिशील” पश्चिम के विरोध में प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करता है। इनमें से अधिकांश कहानियों का यही सार होता है कि भारतीय महिलाएँ आत्मनिर्भर और उन्नतिशील तभी कहला सकती हैं जब वह अपनी “पितृसत्तात्मक पृष्ठभूमि” यानी भारतीय मूल्यों को चुनौती देती हैं और पश्चिमी “प्रगतिशील” जीवन शैली के रंग में ढल जाती हैं।
उदाहरण के लिए, मार्च 2024 में Vogue India में प्रकाशित एक कहानी भारत के ग्रामीण परिवेश की महिलाओं को एक कथात्मक वस्तु के रूप में प्रस्तुत करती है। इसमें एक भारतीय महिला फोटोग्राफर द्वारा इन ग्रामीण महिलाओं के रोज़मर्रा के जीवन के चित्रों को प्रस्तुत किया गया है। कहानी के विवरण में कहा गया है, “अस्थाना सहज रूप से बहनापे की कहानियों की ओर आकर्षित होती हैं, उन महिलाओं की कहानियां जो प्राय: अनदेखी और अदृश्य सी हाशिये पर जीवन व्यतीत करती हैं, ऐसी महिलाओं की जो असफलताओं, रूढ़ियों, और रूढ़िगत ढाँचों की बेड़ियों को तोड़ रही हैं”। [2]
लेख में इन चित्रों को प्रदर्शित करके इन महिलाओं के “प्रामाणिक” चित्र प्रस्तुत करने का दावा किया गया है, परंतु विडंबना यह है कि यह केवल “पश्चिमी” या अंग्रेजी बोलने वाले “दर्शकों” के स्वादानुसार इन महिलाओं की जीवन शैली को एक ऐसे दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है जो की पश्चिमी दुनिया को लुभा सके। इस प्रक्रिया में यह जीवंत महिलायें एक संग्रहालय में प्रदर्शित की जाने वाली वस्तु मात्र बन के रह जाती हैं। अब प्रश्न यह है कि आपने पितृसत्ता, स्त्री-द्वेष, आदि से जूझती “पश्चिमी महिलाओं” के ऐसे कितने “प्रामाणिक चित्र” देखे हैं। शायद कोई भी नहीं। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि “वैश्विक दक्षिण” की महिलाएँ ही अधिकतर ऐसी मानवीय-रुचि की कहानियों का विषय बनती हैं।
यह लेख भारतीय महिलाओं से संबंधित कई मुद्दों पर पश्चिमी मीडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को उजागर करने का प्रयास करेगा। प्रत्येक अनुभाग किसी विशेष मुद्दे पर मीडिया की कवरेज की विवेचना करेगा और उसमें निहित पूर्वाग्रहों को उजागर करेगा। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भले ही हम भारत में महिलाओं के मुद्दों पर पश्चिमी मीडिया की कवरेज पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन यह केवल पश्चिमी मीडिया ही नहीं, बल्कि पूरा मीडिया, अकादमिक और बुद्धिजीवी तंत्र है जो भारतीय महिलाओं के मुद्दों के विशिष्ट प्रस्तुतीकरण हेतु प्रतिमान स्थापित करता है। भारतीय मीडिया, विशेषकर कि मुख्यधारा का अंग्रेजी मीडिया, महिलाओं के मुद्दों को कवर करने में पश्चिमी मीडिया की लीक का अनुसरण करता है।
भारतीय समाज को जबरन पितृसत्तात्मक समाज के रूप में चित्रित करना
पितृसत्ता सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान है। यह एक ऐसी समस्या है जिससे पूरी मानवता जूझ रही है, चाहे उनकी भौगोलिक स्थिति या सांस्कृतिक निर्देशांक कुछ भी हों। फिर भी पश्चिमी मीडिया भारत को “पितृसत्ता की मूल भूमि” के रूप में चित्रित करने हेतु अतिआतुर है।
यह नियमित रूप से भारत में महिलाओं के मुद्दों को “स्थानीय महिलाओं द्वारा पितृसत्ता को चुनौती देने” के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है। अधिकांश प्रस्तुतीकरण से यह धारणा बनती है कि भारतीय संस्कृति निहित रूप से पितृसत्तात्मक है। यहां तक कि भारत में महिलाओं के अधिकारों में वैध प्रगति को दर्शाने वाले मामलों को भी इस आख्यान को बेचने हेतु तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है कि पारंपरिक भारतीय संस्कृति अनिवार्य रूप से महिला विरोधी है।
पिछले 15 वर्षों में The Guardian द्वारा भारत में महिलाओं के मुद्दों को कवर करने वाले कुछ लेखों की सुर्खियाँ पर जरा ध्यान दीजिए:
“मेरी दादी भारत में पितृसत्तात्मक भूमि अधिकारों को चुनौती दे रही हैं – मुझे उन पर बहुत गर्व है,”
“भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है, इसे वास्तविकता का सामना करना चाहिए,”
“मुझे एक ‘अच्छी भारतीय महिला’ बनना चाहिए था। मैंने इसके बजाय स्वतंत्रता को चुना”।
“मैं यहाँ हूँ, मेरी उपस्थिति की आदत डाल लो”: भारत में, दौड़ने वाली महिला का मतलब व्यायाम से कहीं अधिक है,”
“वह स्वछंदता से जीता है, मैं भय में जीती हूँ: भारत की परित्यक्त पत्नियों की दुर्दशा,” और
“भारत महिलाओं के लिए इतना बुरा क्यों है?”,
ये सनसनीखेज सुर्खियाँ पाठक को शुरू से ही भारतीय समाज और संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह और घृणा से भर देती हैं, भले ही विषय कुछ अलग हो। अधिकतर सुर्खियाँ भारत के बारे में भयानक रुढ़िवादी धारणाओं को बढ़ावा देती हैं, जिससे यह धारणा बनती है कि देश में कुछ स्वाभाविक रूप से बुरा है जो इसकी महिलाओं की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी है।
लेख “भारत महिलाओं के लिए सबसे ख़तरनाक देश है, इसे वास्तविकता का सामना करना होगा” [3] Thomson Reuters Foundation के एक सर्वेक्षण के विषय में बात करता है जिसमें भारत को महिलाओं के लिए विश्व का सबसे ख़तरनाक देश बताया गया है। एक और लेख जिसका शीर्षक है “मुझे एक ‘अच्छी भारतीय महिला’ बनना था, मैंने इसके बजाय आज़ादी को चुना” [4] एक ऐसी भारतीय महिला की आत्मकथात्मक कहानी है जो “पितृसत्ता की निंदा” करती है और अपना अस्तित्व और स्व पाने हेतु कथित तौर पर भारत की व्यवस्थित विवाह प्रणाली के चंगुल से बाहर निकलती है।
“मुझे अपने माता-पिता की बात सुनने, अपने लिए एक पति खोजने और अपनी आवश्यकताओं को अनदेखा करने के लिए कहा गया था। परंतु मैंने अपना मार्ग स्वयम् चुनने का निर्णय लिया”, लेख का परिचय कहता है। संपूर्ण लेख एक महिला की सनसनीखेज व अतिशयोक्तिपूर्ण कहानी है जो “एक अच्छी भारतीय महिला होने का प्रयास करना छोड़ देती है”, बैंगलोर में नौकरी पाती है और स्वतंत्र हो जाती है (लेख के अनुसार एक अच्छी भारतीय महिला होना और स्वतंत्र होना परस्पर विरोधी हैं) । ये लेखिका एक “दक्षिण एशियाई नारीवादी कार्यकर्ता” है।
“भारत में, महिलाओं का एक छोटा समूह काम पाने के लिए सब कुछ जोखिम में डाल देता है,” [5] “हिंदू धर्म में, पवित्रता का सम्मान करें, लैंगिक भेदभाव को अनदेखा करें” [6], “कोई आगंतुक नहीं, कोई शराब नहीं, 9 बजे तक घर: भारत में एक अकेली महिला के रूप में किराए पर रहना,” [7], ये पिछले कुछ वर्षों में The New York Times में प्रकाशित लेखों की कुछ सुर्खियाँ हैं।
The New York Times “भारत की बेटियाँ” नामक एक श्रृंखला भी चला रहा है।[8] श्रृंखला का प्रत्येक अध्याय एक भारतीय महिला की जीवन कहानी को नाटकीय रूप देता है, जो उसे भारतीय पितृसत्ता की “पोस्टर गर्ल” बनाता है। यह पत्रकारिता का सर्वाधिक वीभत्स एवम् सनसनीखेज रूप है। आश्चर्य की बात है कि फिर भी ऐसे “सम्मानित” मीडिया प्रकाशन पत्रकारिता के नाम पर भारतीय महिलाओं की निजता पर अतिक्रमण करना जारी रखते हैं, जिन्हें शायद इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि किस प्रकार उनकी कहानियों को अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के समक्ष तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि वैश्विक मंच पर भारतीयों और भारत की छवि को धूमिल किया जा सके और भारत उपहास का पात्र बन कर रह जाये।
हिंदू त्योहारों को “नारी-विरोधी” बताकर उनकी छवि धूमिल करना
पूरे विश्व में त्योहार, बस त्योहार हैं – एक समुदाय की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ, बस हिंदू त्योहारों को छोड़कर। वैश्विक मीडिया, अकादमिक और बुद्धिजीवी तंत्र ने हिंदू त्योहारों को “पितृसत्ता की प्रदर्शनकारी केस स्टडीज़” में परिवर्तित कर दिया है। पितृसत्ता की त्रुटियों पर कोई भी आलोचनात्मक व्याख्या हिंदू धर्म और उसके रीति-रिवाजों और परंपराओं की आलोचना किए बिना पूर्ण नहीं होती।
करवा चौथ और रक्षा बंधन जैसे हिंदू त्योहार, जहाँ महिलाएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, उन्हें “महिला-विरोधी अनुष्ठानों के केस स्टडीज़” में बदल दिया गया है। विशेषकर करवा चौथ, जिसके दौरान विवाहित महिलाएँ एक दिन का उपवास रखती हैं और अपने पति की लंबी आयु हेतु प्रार्थना करती हैं, मीडिया में उपहास और निंदा का विषय रहा है। आज तक लिखे गए प्रत्येक पश्चिमी नारीवादी सिद्धांत को करवा चौथ पर जबरन थोप दिया गया है; हिंदु त्यौहारों के विरूद्ध सामूहिक घृणा की ये पराकाष्ठा है!
पश्चिमी मीडिया प्रत्येक वर्ष करवा चौथ के इर्द-गिर्द अत्यधिक सनसनीख़ेज़ और सतही लेखों की बौछार करता है और भारतीय मीडिया भी उनका अनुसरण करता है…आमतौर पर ये लेख भारतीय नाम वाली महिला पत्रकारों द्वारा लिखे जाते हैं, जो इस प्रकार की निराधार आलोचना को कुछ हद तक “प्रामाणिकता” प्रदान करता है।’
“करवा चौथ: डिजाइनर पहनावे में नारीवाद विरोधी” अक्टूबर 2016 में Huffington Post द्वारा प्रकाशित एक लेख की हेडलाइन है।[9] लेखिका श्रीनिता भौमिक करवा चौथ के विषय में कहती हैं, “वह विवादास्पद त्योहार जहां महिलाएं अपने पति की दीर्घायु के लिए उपवास करती हैं।” लेख का बाकी अंश करवा चौथ की आलोचना करने के प्रयास में लगा रहता है, और इसे एक महिला विरोधी षडयंत्र के रूप में चित्रित करता है, जहाँ महिलाओं को पूरे दिन भूखा रहने और अपने पति की लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करने के लिए विवश करके प्रताड़ित किया जाता है। इस प्रकार की सतही और मूर्खतापूर्ण आलोचना कुल मिलाकर सभी प्रकार की करवा चौथ विरोधी विद्वत्ता का सार है।
यह बकवास सभी तर्कसंगत सोच वाले लोगों को मूर्खतापूर्ण और अति आलोचनात्मक लग सकती है, लेकिन करवा चौथ जैसे हिंदू त्योहारों के विरुद्ध इस प्रकार की विषकारी लेखनी भारत और अन्य जगहों पर “नारीवादी विद्वत्ता” का एक बड़ा हिस्सा है। आइए The New York Times द्वारा प्रकाशित एक और लेख देखें। “मेरी माँ द्वारा ख़ुद पर थोपा हुआ उपवास: मुझे उनके हिस्से की भूख महसूस होती है”।[10] नताशा सिंह द्वारा लिखा गया यह लेख 2009 में प्रकाशित हुआ था। यह एक अनिवासी भारतीय महिला का आत्मकथात्मक विवरण है। लेख का प्रारंभ हमेशा की तरह करवाचौथ के विरूद्ध व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण और भ्रामक बातों के साथ होती है कि कैसे इस अवसर पर उपवास करना लेखिका की माँ के लिए एक बड़ी बात थी और कैसे यह सब लेखिका की समझ के परे है।
फिर, लेखिका के माता-पिता के निजी जीवन का एक शर्मनाक नाटकीय रूपांतर होता है, जिन्हें पितृसत्तात्मक, रूढ़िवादी आदि के रूप में चित्रित किया गया है। फिर कहानी करवाचौथ की आलोचना से लेकर समग्र भारतीय संस्कृति की आलोचना तक पहुँचती है। यह पश्चिमी सभ्यता में पली बढ़ी एक भारतीय महिला की कहानी है जो पश्चिमी संस्कृति के मानदंडों द्वारा ही भारतीय सभ्यता का अवलोकन करती है। लेखिका अपने माता-पिता के बीच संबंधों की व्याख्या भी पश्चिम के लेंस से ही करती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि पश्चिमी मीडिया भारतीय नारीत्व के चित्रण के मामले में केवल इस प्रकार के दृष्टिकोणों को ही स्थान देता है। इससे उनके एजेंडे और उसके मूल स्रोत के बारे में बहुत कुछ ज्ञात होता है।
रक्षाबंधन एक और हिंदू त्योहार है जिसे पश्चिमी मीडिया द्वारा गलत तरीके से प्रस्तुत किए जाने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। एक बहन द्वारा अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने की सरल और सुंदर परंपरा, जो बदले में उसे अटूट सुरक्षा प्रदान करती है, को पितृसत्ता, स्त्री-द्वेष, महिलाओं के उत्पीड़न और न जाने क्या-क्या दर्शाने हेतु विकृत कर दिया गया है।
“Feminism in India” एक ऐसा ही मीडिया पोर्टल है जो भारत में महिलाओं के मुद्दों के प्रतिनिधित्व की बात आने पर पश्चिम के संदिग्ध एजेंडे को आगे बढ़ाता है। “नारीवाद और रक्षा बंधन – एक संतुलन परंपरा?”, 2019 में उनके द्वारा प्रकाशित इस लेख में तर्क दिया गया है कि बहन द्वारा अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने की पूरी अवधारणा, जो उसे कथित तौर पर सुरक्षा प्रदान करती है, वास्तविकता में विषाक्त पुरूषत्व का पर्याय बनकर रह जाती है। लेख तो यह सुझाव देने की सीमा तक चला जाता है कि रक्षा बंधन जैसा त्योहार “किसी पर भी यौन उत्पीड़न को उचित ठहराता है जब तक कि पीड़ित आपकी बहन न हो”। [11]
बीबीसी हिंदी ने 2022 में प्रकाशित एक प्रथम-व्यक्ति कथात्मक कहानी के माध्यम से रक्षा बंधन पर एक और विकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया: “रक्षा बंधन पर निर्भर नहीं है भाई बहन का सच्चा रिश्ता” ।[12] इस उत्तेजक शीर्षक को छोड़कर, कहानी अपने आप में एक विचित्र कथा है कि कैसे लेखिका बचपन में रक्षाबंधन के समय अपने नारी सुलभ गुणों को महसूस करने हेतु बाध्य हो जाती थी। इस कहानी में वे सभी तत्व हैं कि रक्षा बंधन की कहानी कैसे नहीं लिखी जानी चाहिए! यह लेख लैंगिक भूमिकाओं, सांप्रदायिक हिंसा और न जाने क्या-क्या जोड़कर भाई-बहन के सुंदर और शाश्वत बंधन के इस प्रतीकात्मक त्यौहार का राजनीतिकरण करता है। परंतु अब क्या ही कहा जाये, ये है एक विशुद्ध मार्क्सवादी कहानी जिसे भारतीयता और हिंदुत्व से जुड़ी हर वस्तु से समस्या है!
हिंदू सामाजिक मुद्दों को सनसनीखेज बनाना: वृंदावन की विधवाएँ
हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है। ये मनुष्य को स्वयम् के ज्ञान और विवेक का प्रयोग कर तर्क द्वारा स्वतंत्र रूप से निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए प्रेरित करता है। हिन्दू धर्म सनातन के सिद्धांत पर आगे बढ़ता है यानी कि जो गतिबोधक है और नित नवीन तत्वों को आत्मसात करता रहता है। इसके विपरीत अब्राहामिक धर्म एक पूर्व निर्धारित रूढ़िवादी ढाँचे पर चलते हैं और इनमें वैज्ञानिक तर्क वितर्क और समय के साथ परिवर्तन की संभावना कम ही होती है।
पिछले कुछ वर्षों में हिंदू समाज में कई सुधार आंदोलन हुए हैं; हिंदू धर्म से जुड़ी कई प्रतिगामी प्रथाओं को कानून द्वारा समाप्त कर दिया गया है और सामाजिक रूप से इनका प्रचलन कम होता जा रहा है। फिर भी पश्चिमी मीडिया हिंदू धर्म की “सामाजिक कुरीतियों” को अतिशयोकितपूर्ण तरीक़े से प्रस्तुत करना जारी रखता है। उदाहरण के लिए, बाल विवाह एक ऐसा मुद्दा है जो सभी धर्मों को प्रभावित करता है, फिर भी मुख्यधारा का मीडिया बाल विवाह को हिंदुओं द्वारा प्रचलित एक विशेष “सामाजिक बुराई” के रूप में चित्रित करता है। आपने इस्लाम में बाल विवाह या बहुविवाह के खतरे के विषय में बात करते हुए कितने पश्चिमी मीडिया लेख देखे हैं? परंतु चूँकि हिंदू धर्म पर निशाना साधना अन्य धर्मों की अपेक्षा सरल है, इसे महिलाओं को प्रभावित करने वाली सभी सामाजिक कुरीतियों के जनक के रूप में चित्रित किया जाता है।
BBC, The Washington Post, आदि अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन वृंदावन में अपने परिवारों द्वारा त्याग दी गई हिंदू विधवाओं के विषय से संबंधित सनसनीखेज एवं अतिशयोक्तिपूर्ण कहानियों से पटे पड़े हैं। यद्यपि इस मुद्दे की गंभीरता को नकारा नहीं जा सकता या इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि यह एक अमानवीय प्रथा है, परंतु पश्चिमी मीडिया की इस विषय को लेकर अति उत्सुकता निश्चित रूप से परोपकारिता नहीं है। यदि परंपरागत रूप से देखा जाये तो विधवाओं के साथ सभी संस्कृतियों में अधिकतर दुर्व्यवहार ही हुआ है । फिर भी, पश्चिमी मीडिया हिंदू धर्म की छवि धूमिल करने को अतिआतुर प्रतीत होता है जैसे कि हिंदू धर्म में कुछ अंतर्निहित त्रुटि है जो विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार हेतु उत्तरदायी है। आपने ईसाई धर्म या इस्लाम में विधवाओं की स्थिति पर प्रकाश डालती हुई कितनी मीडिया कहानियाँ देखी हैं?
“विधवाएँ जो घर वापस नहीं लौट सकतीं” (2022) [13], “भारत की उपेक्षित विधवाएँ” (2002)[14], “6,000 विधवाओं वाला भारतीय शहर” (2013) [15], “भारत की परित्यक्त विधवाएँ जीवित रहने के लिए संघर्ष करती हैं” [16], और “भारत की अदृश्य विधवाएँ, तलाकशुदा और अकेली महिलाएँ” (2014) [17], इस विषय पर BBC द्वारा की गई कुछ कहानियों के शीर्षक पढ़ें। “वृंदावन: विधवाओं का शहर” (2007), “भारत का विधवाओं का शहर (2010), और “विधवापन विकासशील दुनिया की प्रमुख समस्याओं में से एक क्यों है,” The Guardian के शीर्षक हैं।
ये तो बस कुछ उदाहरण हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तानी दैनिक Dawn भी वृंदावन की विधवाओं के मुद्दे में रुचि लेता हुआ दिखाई देता है। ऐसा ही एक शीर्षक है, “वर्जनाओं को तोड़ना: भारतीय विधवाओं के लिए पहली होली” (2015)[18]। यह लेख एक फोटो फीचर है, जिसमें छायाचित्रों के साथ कुछ टिप्पणियाँ भी हैं। कुल मिलाकर लेख यह कहता है कि वृंदावन की विधवाएँ होली खेलकर “हिंदू परंपरा” की बेड़ियाँ तोड़ रही हैं। “विधवाओं का कहना है कि उन्हें होली खेलने या त्योहारों में नृत्य के माध्यम से हर्षोल्लास का प्रदर्शन करने से रोकने वाली कठोर हिंदू परंपरा को तोड़ना चाहिए,”, यह वाक्य एक छायाचित्र के समक्ष शीर्षक में लिखे हैं। यदि लेख में “रूढ़िवादी इस्लामी समाज” में विधवाओं की स्थिति पर भी कुछ प्रकाश डाला गया होता, तो कदाचित् पाठक के लिए लेख कुछ और रोचक होता। या फिर लेखक से और लेख प्रकाशित करने वाले मीडिया से इस प्रकार की अपेक्षा रखना शायद कुछ अनुचित होता?
वृंदावन में अपने परिवारों द्वारा छोड़ी गई हिंदू विधवाओं की संख्या भारत की कुल जनसंख्या की दृष्टि से नगण्य होगी, फिर भी पश्चिमी मीडिया हिंदुओं और हिंदू धर्म की छवि मलिन करने हेतु इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है। इस मुद्दे पर पश्चिमी मीडिया प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित अधिकांश सामग्री इस कथन को बढ़ावा देती हैं कि हिंदू धर्म, अपने आप में, स्वाभाविक रूप से बुरा है और इसलिए वृंदावन की विधवाओं की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी है।
“वृंदावन की विधवाओं” के विषय को लेकर पश्चिमी मीडिया की अत्यधिक रुचि को भला किस प्रकार से देखा जाये? एक कारण यह है कि उन्हें अपने वेब प्रकाशनों के पन्नों और को भरने हेतु सनसनीखेज कहानियों की आवश्यकता होती है, और दूर की संस्कृतियों और सभ्यताओं का नकारात्मक चित्रण प्रस्तुत करने वाली अतिशयोक्तिपूर्ण कहानियाँ इस खाँचे में पूर्णतया फिट करती हैं। यद्यपि एक दूसरा कारण यह भी है कि इस प्रकार के विषय वैश्विक स्तर पर पनप रहे हिन्दू धर्म विरोधी कथानक में फिट बैठते हैं और हिंदू धर्म को अमानवीय ढंग से चित्रित करने और हिंदू संस्कृति और परंपराओं का अति सरलीकरण कर उन पर जबरन अब्राहमिक ढाँचे को थोपने के एजेंडे को विस्तार देते हैं।
भारत में हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों को लेकर विरोधाभासी आख्यान
भारत में महिलाओं के मुद्दों को लेकर पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टिंग दोहरे मानदंडों से परिपूर्ण है। यह सांप्रदायिक कार्ड खेलने के लिए “महिलाओं के अधिकारों” के कथानक का उपयोग करता है। सामान्य रूप से भारतीय महिलाओं के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते समय, या हिंदू महिलाओं के मुद्दों पर (चूंकि अधिकांश भारतीय महिलाएं हिंदू हैं), यह परंपरा बनाम आधुनिकता के द्विआधारी को अपनाता है, भारत के “मूल निवासियों” को पुराने जमाने के और जीर्ण-शीर्ण रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों से चिपके रहने और आधुनिकता को अपनाने में विफल रहने के लिए फटकार लगाता है। परन्तु मुस्लिम महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते समय, सर्वाधिक भयावह और पुरातन प्रथाएँ एकाएक “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” बन जाती हैं।
जैसा कि पिछले अनुभागों में कई उदाहरणों के माध्यम से दर्शाया गया है, पश्चिमी मीडिया हिंदू रीति-रिवाजों, त्यौहारों और परंपराओं के सबसे सौम्य पहलुओं पर भी कटाक्ष करता है, ताकि यह धारणा बनाई जा सके कि ये प्रतिगामी हैं और हिंदू महिलाओं के लिए इन्हें पूर्णतया त्याग देना ही श्रेष्ठ रहेगा। परंतु इस्लाम के परिपेक्ष में, तीन तलाक, हिजाब, आदि घोर महिला विरोधी प्रथाओं को पश्चिमी मीडिया द्वारा सूक्ष्म रूप से उचित ठहराया जाता है और शायद महिमामंडित भी किया जाता है।
यदि आप विभिन्न देशों में हिजाब प्रतिबंध के मुद्दे पर पश्चिमी मीडिया की कवरेज देखेंगे, तो आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी। भारतीय राज्य कर्नाटक कुछ मुस्लिम महिलाओं द्वारा शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने की हठ को लेकर एक बड़े विवाद का केंद्र बन गया। फरवरी 2022 में, तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने एक परिपत्र जारी किया जिसमें कहा गया कि सभी छात्रों को स्कूलों और कॉलेजों के प्रबंधन द्वारा निर्धारित ड्रेस कोड का पालन करना चाहिए। सर्कुलर ने आधिकारिक तौर पर हिजाब पर प्रतिबंध नहीं लगाया, लेकिन इसने ऐसे मामलों में स्कूलों और कॉलेजों के प्रबंधन को स्वायत्तता प्रदान की, यानी अगर राज्य में कोई शैक्षणिक संस्थान परिसर में हिजाब पर प्रतिबंध लगाता है, तो छात्रों को उस नियम का पालन करना होगा। [19]
यह मुद्दा कर्नाटक उच्च न्यायालय तक पहुंचा, जिसने अंततः आदेश को ज्यों का त्यों रखा और कहा कि इसे अमान्य करने का कोई मामला नहीं बनता। इसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील पर विभाजित फैसला सुनाया। [20]
पश्चिमी मीडिया ने इस मुद्दे को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया। भारतीय सरकार को एक क्रूर इकाई के रूप में चित्रित किया गया, जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान का हनन कर रही है। हिजाब जैसा अति-रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक प्रतीक, जिसके कारण ईरान में 20 वर्षीय महसा अमीनी की पुलिस हिरासत में मृत्य हो गई, जिसे अनिवार्य हिजाब प्रतिबंध का उल्लंघन करने हेतु ईरान की नैतिकता पुलिस ने गिरफ्तार किया था, यही हिजाब अचानक भारतीय संदर्भ में “महिला मुक्ति” का प्रतीक बन गया।
फरवरी 2022 में NBC News ने इस मुद्दे पर एक लेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक कहता है, “भारत में मुस्लिम महिलाएँ स्कूलों में हिजाब पर राज्य के प्रतिबंध का विरोध करती हैं।” लेख में “महिलाओं के मुद्दों” का राजनीतिकरण किया गया है, जिसका उपयोग सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध “हिंदुत्व बहुसंख्यकवादी” होने के अतिशयोक्तिपूर्ण आरोप को बढ़ावा देने हेतु किया गया है। आलोचकों का कहना है कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी या भाजपा के तहत भारत में हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोधी भावनाएँ बढ़ रही हैं… मोदी कहते हैं कि उनकी नीतियों से सभी भारतीयों को लाभ होता है। परंतु उनकी पार्टी को इस वर्ष कई प्रमुख राज्य चुनावों का सामना करना पड़ रहा है, और राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हिजाब का मुद्दा उनके वोट बैंक को बढ़ा सकता है”, लेख में कहा गया है। [21]
अक्टूबर 2022 के BBC शीर्षक में लिखा है, “हिजाब पर निर्णय: कक्षाओं में हेडस्कार्फ़ पर प्रतिबंध पर भारत का सुप्रीम कोर्ट विभाजित है।” लेख में कर्नाटक सरकार के हिजाब प्रतिबंध के विरुद्ध मामला बनाने के लिए मलाला यूसुफ़ के चुनिंदा उद्धरण दिए गए हैं। लेख में कहा गया है, “नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफ़ज़ई, जो मात्र 15 साल की थीं जब वह लड़कियों के शिक्षा के अधिकार के लिए आवाज़ उठाने के कारण पाकिस्तान में तालिबान के हमले में बच गई थीं, उन्होंने भी इस विवाद में अपना पक्ष रखा और भारत के नेताओं से ‘मुस्लिम महिलाओं को हाशिए पर जाने से रोकने’ के लिए कुछ करने का आह्वान किया।” [22]
“भारत: विवाद बढ़ने पर हिजाब विरोध पर प्रतिबंध” [23], “भारत में हिजाब विवाद: ‘मैं बस पढ़ाई करना चाहती हूँ’,” [24] “हिजाब विवाद भारतीय धर्मनिरपेक्षता को कैसे खतरे में डाल रहा है?”[25] , “भारत: मुस्लिम महिलाओं के लिए समान नागरिक संहिता का क्या अर्थ होगा?” [26], और “भारत में तीन तलाक प्रतिबंध पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ” [27], ये भारत में मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर Deutsche Welle की कवरेज की कुछ सुर्खियाँ हैं।
“भारत में हिजाब विवाद: ‘क्या पहनना है, यह तय करना एक महिला का अधिकार है’” Anadolu Agency की हेडलाइन है। रिपोर्ट कर्नाटक के विभिन्न राजनीतिक दलों के तत्कालीन विपक्षी सदस्यों के हिजाब संबंधी वक्तव्यों को ज़ोरदार तरीक़े से प्रस्तुत करती है ताकि कर्नाटक सरकार द्वारा लगाये 2022 हिजाब प्रतिबंध निर्णय के विरुद्ध पक्ष को मज़बूत किया जा सके। यह लेख हिजाब प्रतिबंध को मोदी सरकार द्वारा “धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ भेदभाव को वैध बनाने और हिंसक हिंदू राष्ट्रवाद को सक्षम करने” के कथानक के ढाँचे में रखकर प्रस्तुत करता है। [28]
LifeGate नामक वेबसाइट के शीर्षक में लिखा है, “भारत में मुस्लिम महिलाएं हिजाब पहनने के अधिकार के लिए लड़ रही हैं।” इस लेख में भारत में हिजाब प्रतिबंध विरोधी प्रदर्शनों के बारे में विभिन्न प्रतिभागियों के बयान दिए गए हैं और प्रदर्शनकारियों में से एक के हवाले से कहा गया है कि “हिजाब पहनने पर आक्रमण इस्लामी मूल्यों के विरुद्ध आक्रमण का एक हिस्सा है।”[29]
इस विषय पर विस्तृत चर्चा लेख के दायरे से बाहर है। लेकिन मुद्दा यह है कि पश्चिमी मीडिया तंत्र मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में महिलाओं के अधिकारों पर एक अति-रूढ़िवादी और प्रतिगामी कथानक का प्रचार प्रसार करता है। इसकी तुलना यदि आप हिंदू महिलाओं को चित्रित करते समय अपनाए जाने वाले अति-सतर्क तरीके से करें तो देखेंगे कि कैसे यही मीडिया हिंदू त्योहारों और परंपराओं को, उनके गहरे प्रतीकवाद या पृष्ठभूमि और संदर्भ के बारे में किंचित् मात्र भी जानकारी बिना, दुर्भावनापूर्ण रूप से “पितृसत्तात्मक” के रूप में परिभाषित और प्रस्तुत करता है।
भारत को “बलात्कार की राजधानी” बताने का मिथक
जब भारत में महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों को लेकर विमर्श होता है, तो पश्चिमी मीडिया भद्दे सामान्यीकरण का सहारा लेता है और अपरिपक्व खबरें व आधे अधूरे समाचार देकर बच निकलता है। कई पश्चिमी मीडिया संस्थानों ने तो बिना किसी विश्वसनीय प्रमाण के भारत को “दुनिया की बलात्कार की राजधानी” तक करार दे दिया है। जून 2023 में StopHindudvesha द्वारा प्रकाशित एक लेख भारत में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के पश्चिमी मीडिया की सनसनीख़ेज़ रिपोर्टिंग को उजागर करता है। यह The New York Times की एक कहानी का विश्लेषण करता है जो भारत को दुनिया की बलात्कार की राजधानी के रूप में चित्रित करती है। लेख यह दर्शाने हेतु पर्याप्त प्रमाण भी प्रस्तुत करता है कि पश्चिम बलात्कार के अपराध से बड़े पैमाने पर ग्रस्त है और यहाँ बलात्कार की समस्या “भारत की तुलना में 10 गुना अधिक है”। [30]
जिस प्रकार से पश्चिमी मीडिया भारत में महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों को रिपोर्ट करता है, एक आम व्यक्ति यह सरलता से मान सकता है कि भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहाँ इस प्रकार के अपराध होते हैं। “भारत की बलात्कार की समस्या के पीछे क्या है?” 2019 में Deutsche Welle द्वारा लिखे गए एक लेख की हेडलाइन पढ़िए। लेख में यह प्रमाणित करने के लिए मूल्य-आधारित सामान्यीकरण का सहारा लिया गया है कि भारतीय संस्कृति में कुछ ऐसा अंतर्निहित है जो देश को महिलाओं के लिए असुरक्षित बनाता है। लेख में कहा गया है, “पिछले कुछ महीनों में भारत में बलात्कार के कई मामलों ने देश में लिंग आधारित हमलों के मुद्दे पर प्रकाश डाला है। विशेषज्ञों का कहना है कि गहरी पैठ वाली पितृसत्ता ने भारत में इस प्रकार का वातावरण तैयार किया है जिससे यहाँ की महिलायें ‘द्वितीय श्रेणी’ का दर्जा पाकर रह गयी हैं।” [31]
बलात्कार जैसे अपराध पूरी दुनिया में होते हैं, फिर भी आपने पश्चिमी मीडिया में ऐसे कितने लेख देखें हैं जो पश्चिमी देशों में पनप रही बलात्कार की समस्या को वहाँ की “पितृसत्तात्मक” संस्कृति” या इन देशों में महिलाओं की “द्वितीय श्रेणी” की स्थिति से जोड़ते हुए चित्रित करते हैं? शायद कोई नहीं। ऐसा लगता है कि इस प्रकार के बेतुके सामान्यीकरण केवल भारत जैसे “तीसरी दुनिया” के देशों के लिए ही आरक्षित हैं।
भारत में महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों पर पश्चिमी मीडिया कवरेज 2012 में दिल्ली में चलती बस में एक युवती के सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना के पश्चात अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई, जिसे आमतौर पर निर्भया कांड के रूप में जाना जाता है। निर्भया मामला भारतीय युवाओं के सामाजिक सरोकार का केंद्र बिंदु बन गया, जो दिल्ली जैसे शहरों में महिलाओं की सुरक्षा की कमी का विरोध करने के लिए बड़ी संख्या में सड़को पर प्रदर्शन करने उतरे । प्रत्येक भारतीय महिला के साथ कुछ मिनटों के भीतर बलात्कार होने को लेकर सनसनीखेज दावे करने वाले निराधार लेख वैश्विक मीडिया में धड़ल्ले से प्रकाशित होने लगे।
फिर भी, विडंबना यह है कि जब सबसे अधिक बलात्कार की घटनाओं वाले देशों के आँकड़ों की बात आती है, तो भारत शीर्ष 10 में भी नहीं आता है। द Business Standard द्वारा प्रकाशित 2020 की एक रिपोर्ट बलात्कार की व्यापकता पर विश्वव्यापी आँकड़े प्रस्तुत करती है। रिपोर्ट के अनुसार, सबसे अधिक बलात्कार की दर वाले 10 देश दक्षिण अफ्रीका, बोत्सवाना, लेसोथो, स्वाज़ीलैंड, बरमूडा, स्वीडन, सूरीनाम, कोस्टा रिका, निकारागुआ और ग्रेनेडा हैं। रिपोर्ट में बांग्लादेश, पाकिस्तान, चीन, जापान, अमेरिका और रूस के साथ बलात्कार की उच्च दर वाले देशों की सूची में भारत का भी उल्लेख किया गया है। यद्यपि, इसमें यह भी कहा गया है कि 2020 तक भारत में प्रत्येक 100,000 लोगों की बलात्कार दर 1.80 प्रतिशत है ।
इसकी तुलना में, अमेरिका में बलात्कार का आँकड़ा 27.3 प्रति 100,000 लोगों पर है। रिपोर्ट के अनुसार, स्वीडन, जो सबसे ज़्यादा बलात्कार की घटनाओं वाले 10 देशों की सूची में 6वें स्थान पर है, के लिए तुलनात्मक आंकड़ा 63.50 है। [32]
फिर भी, आपने अमेरिका या स्वीडन में “बलात्कार की संस्कृति” की निंदा करने वाली कितनी पश्चिमी मीडिया रिपोर्ट देखी हैं? यह विचित्र प्रतीत होता है कि भारत, जहाँ प्रति 100,000 जनसंख्या पर 2 प्रतिशत से भी कम बलात्कार दर है, को दुनिया भर में “बलात्कार की राजधानी” की उपाधि मिली हुई है, जबकि अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में “बलात्कार की समस्या” की ओर शायद ही कभी ध्यान केंद्रित किया जाता है, आलोचना तो दूर की बात है।
निष्कर्ष
भारत में महिलाओं के मुद्दों पर रिपोर्टिंग एक निश्चित प्रतिमान का अनुसरण करती है, जो पश्चिमी नारीवादी सिद्धांत सहित पश्चिमी सामाजिक विज्ञान सिद्धांतों के ढांचे को भारतीय संदर्भ पर बिना सोचे समझे, अति सरलीकरण की प्रक्रिया को अपनाते हुए जबरन थोप देती है। इसका परिणाम यह होता है की भारतीय संस्कृति को एक अति रूढ़िबद्ध समाज के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और भारतीय समाज में महिलाओं की पारंपरिक भूमिकाओं को दक़ियानूसी करार दे दिया जाता है।
इस रूढ़िबद्धता के साथ अनिवार्य रूप से एक अब्राहमिक विचार प्रणाली भी है जो हिंदू धर्म को एक बेहद अमानवीय और वीभत्स परंपरा के रूप में दर्शाती है और इससे जुड़ी सांस्कृतिक प्रथाओं को महिला विरोधी के रूप में चित्रित करती है।
समस्या का मूल कारण भारतीय महिलाओं के मुद्दों को पश्चिमी दृष्टिकोण के माध्यम से अकादमिक रूप से प्रस्तुत करना है। भारत में महिलाओं के मुद्दों पर मीडिया कवरेज, चाहे पश्चिमी मीडिया द्वारा हो या भारतीय मीडिया द्वारा, इसी अकादमिक भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी विचारधारा को विस्तार देने का काम करती है।
संदर्भ
[1] News and stories | UN Women – Headquarters; https://www.unwomen.org/en/news-stories
[2] Photographer Deepti Asthana turns a sensitive, non-stereotypical eye to women in rural India | Vogue India; https://www.vogue.in/content/photographer-deepti-asthana-turns-a-sensitive-non-stereotypical-eye-to-women-in-rural-india
[3] India is the most dangerous country for women. It must face reality | Deepa Narayan | The Guardian; https://www.theguardian.com/commentisfree/2018/jul/02/india-most-dangerous-country-women-survey
[4] I was supposed to grow up to be a ‘good Indian woman’. I chose freedom instead | Sangeeta Pillai | The Guardian; https://www.theguardian.com/commentisfree/2022/oct/21/i-was-supposed-to-grow-up-to-be-a-good-indian-woman-i-chose-freedom-instead
[5] In India, a Small Band of Women Risk It All for a Chance to Work – The New York Times (nytimes.com); https://www.nytimes.com/2016/01/31/world/asia/indian-women-labor-work-force.html#:~:text=The%20Indian%20Constitution%20guarantees%20equality,traditions%2C%20that%20guarantee%20means%20little.
[6] In Hinduism, Respect the Sacred, Ignore the Sexism – NYTimes.com; https://www.nytimes.com/roomfordebate/2013/01/08/with-children-when-does-religion-go-too-far/in-hinduism-respect-the-sacred-ignore-the-sexism
[7] Renting as a Single Woman in India: No Visitors, No Drinking, Home by 9 – The New York Times (nytimes.com); https://www.nytimes.com/2023/01/18/world/asia/india-single-women-apartments.html
[8] Chapter 6: Struggle and Hope – The New York Times (nytimes.com); https://www.nytimes.com/2023/11/25/world/asia/india-daughters-women.html
[9] Karva Chauth: Anti-Feminism In Designer Wear | HuffPost Life; https://www.huffpost.com/archive/in/entry/karva-chauth-anti-feminism-in-designer-wear_in_5c10e64ae4b085260ba69971
[10] Daughter Studies the Void in Her Parents’ Relationship – The New York Times (nytimes.com); https://www.nytimes.com/2009/09/27/fashion/27love.html
[11] https://feminisminindia.com/2019/08/15/feminism-and-raksha-bandhan-a-balancing-act/
[12] ‘रक्षा बंधन पर निर्भर नहीं है भाई-बहन का सच्चा रिश्ता’ – BBC News हिंदी; https://www.bbc.com/hindi/india-62536836
[13] The widows who can’t return home (bbc.com); https://www.bbc.com/travel/article/20160907-the-widows-who-cant-return-home
[14] BBC News | SOUTH ASIA | India’s neglected widows; http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/1795564.stm
[15] The Indian town with 6,000 widows – BBC News; https://www.bbc.com/news/magazine-21859622
[16] India’s abandoned widows struggle to survive – BBC News; https://www.bbc.com/news/business-24490252
[17] India’s invisible widows, divorcees and single women – BBC News; https://www.bbc.com/news/magazine-26356373
[18] Breaking taboos: First Holi ever for Indian widows – World – DAWN.COM; https://www.dawn.com/news/1167304
[19] Ban on hijab in schools, colleges will be withdrawn: Karnataka CM Siddaramaiah | Mysuru News – Times of India (indiatimes.com); https://timesofindia.indiatimes.com/city/mysuru/ban-on-hijab-in-schools-colleges-will-be-withdrawn-karnataka-cm-siddaramaiah/articleshow/106223874.cms
[20] Ibid.
[21] Muslim women in India protest hijab ban (nbcnews.com); https://www.nbcnews.com/news/world/muslim-women-india-protest-hijab-ban-rcna17038
[22] Hijab verdict: India Supreme Court split on headscarf ban in classrooms (bbc.com); https://www.bbc.com/news/world-asia-india-63225351
[23] India: Hijab protests banned as row escalates – DW – 02/09/2022; https://www.dw.com/en/india-hijab-protests-banned-as-row-escalates/a-60718780
[24] India hijab row: ‘All I want to do is study’ – DW – 02/10/2022; https://www.dw.com/en/india-hijab-row-all-i-want-to-do-is-study/a-60732224
[25] How is the hijab row threatening Indian secularism? – DW – 03/23/2022; https://www.dw.com/en/how-is-the-hijab-row-threatening-indian-secularism/a-61235100
[26] India: What would Uniform Civil Code mean for Muslim women? – DW – 08/03/2023; https://www.dw.com/en/india-what-would-uniform-civil-code-mean-for-muslim-women/a-66429364
[27] https://www.dw.com/en/triple-talaq-instant-divorce-ban-draws-mixed-reactions-in-india/a-49830803#:~:text=The%20%22triple%20talaq%2C%22%20or,Skype%2C%20emails%20and%20phone%20calls.
[28] Instant divorce ban draws mixed reactions in India – DW – 07/31/2019; https://www.aa.com.tr/en/asia-pacific/india-hijab-row-it-is-a-woman-s-right-to-decide-what-to-wear-/2498339#
[29] Muslim women in India are fighting for their right to wear a hijab – LifeGate; https://www.lifegate.com/muslim-women-right-to-wear-hijab-in-india
[30] Rape Capital: It’s the West, not India, that leads in sex crimes – Hindu Dvesha (stophindudvesha.org); https://stophindudvesha.org/rape-capital-its-the-west-not-india-that-leads-in-sex-crimes/
[31] What is behind India’s rape problem? – DW – 12/19/2019; https://www.dw.com/en/what-is-behind-indias-rape-problem/a-51739350
[32] Countries with the highest rape incidents | The Business Standard (tbsnews.net); https://www.tbsnews.net/world/countries-highest-rape-incidents-144499