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जातिगत विमर्श का शस्त्रीकरण और आईआईटी में योग्यता के सिद्धांत के विरुद्ध षडयंत्र

आईआईटी की विश्वसनीयता को नष्ट करने और अमेरिका में भारतीय तकनीकी कार्यबल को निशाना बनाती टूलक़िट जिसके रचयेता भारत- विरोधी और हिंदू-विरोधी ताक़तें हैं

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  • आईआईटी से जुड़े हर मुद्दे पर जबरन जाति विमर्श को थोपा जा रहा है।
  •  आईआईटी में छात्रों की आत्महत्या के मुद्दे को जातिगत विमर्श के सनसनीख़ेज़ चश्मे के माध्यम से राजनीतिक रूप दिया जा रहा है।
  •  आईआईटी में योग्यता के सिद्धांत पर प्रहार किया जा रहा है और इसे सांस्कृतिक पूंजी के रूप में परिभाषित किया जा रहा है, जिसका प्रयोग उच्च जातीय हिंदुओं द्वारा व्यवस्था को नियंत्रित करने और अपने जातिगत विशेषाधिकार को छिपाने हेतु तथाकथित रूप से किया जाता है।
  •  भारत में आईआईटी जैसे संस्थानों में जिस प्रकार के जातिगत विमर्श को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके मूलभूत मॉडल का ढाँचा हार्वर्ड सरीखे प्रतिष्ठित पश्चिमी विश्वविद्यालयों के सामाजिक विज्ञान और मानविकी सिद्धांत विभागों में विकसित किया जाता है।
  •  क्रिटिकल रेस थ्योरी जैसे सैद्धांतिक ढाँचों को भारत के संदर्भ में जाति की अवधारणा पर जबरन थोपा जा रहा है, ताकि यह संकेत दिया जा सके कि हिंदुओं में व्याप्त जाति भेद सभी प्रकार के भेदभाव और असमानता की जड़ है।
  •  आईआईटी पर निशाना साधते इस विषैले जातिगत विमर्श का उद्देश्य इन संस्थानों का जड़ से उन्मूलन कर उनकी विश्वसनीयता को नष्ट करना है। पश्चिम से आयातित इस बेतुके सिद्धांत का अंतिम निशाना अमेरिका के भारतीय तकनीकी कार्यबल हैं, जिन्हें इस प्रकार के अकादमिक सिद्धांतों के माध्यम से हिंदू विरोधी संगठनों द्वारा जातिवादी के रूप में चित्रित किया जा रहा है।

सुंदर पिचाई (गूगल), अरविंद कृष्णा (आईबीएम), निकेश अरोड़ा (पालो ऑल्टो), विवेक शंकरन (अल्बर्टसन), जय चौधरी (ज़स्केलर), नारायण मूर्ति (इंफोसिस), भारत देसाई (सिंटेल), सचिन और बिन्नी बंसल (फ्लिपकार्ट), और विनोद खोसला (सन माइक्रोसिस्टम्स, और खोसला वेंचर्स) में क्या समानता है?

वे सभी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के पूर्व छात्र हैं!

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) लंबे समय से भारत की सॉफ्ट पावर यानि सांस्कृतिक वर्चस्व का स्थायी प्रतीक रहे हैं। जब कोई आईआईटी के पूर्व छात्रों की वैश्विक उपलब्धियों की कहानियाँ सुनता या पढ़ता है, कि किस प्रकार से पश्चिमी देशों की शीर्ष की टेक कंपनियों का आईआईटीएंस प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तो वह इस घटनाक्रम को प्रतिभा पलायन के नकारात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखता बल्कि उन्हें वैश्विक तकनीकी परिदृश्य में भारत के बढ़ते वर्चस्व के दृष्टिकोण से देखता है।

यद्यपि वैज्ञानिक और तकनीकी नवाचार के ये केंद्र अब खुद को एक खतरनाक और विभाजनकारी कथानक में उलझा हुआ पा रहे हैं, जो उन्हें जातिगत विशेषाधिकार के गढ़ के रूप में चित्रित करता है। यह कथानक तर्क देता है कि आईआईटी जैसे संस्थान स्वाभाविक रूप से जातिवादी हैं, जो योग्यता के नाम पर “हिंदू उच्च जाति” के वर्चस्व को कायम रखते हैं।

प्रथम दृष्टिकोण में,  इस प्रकार के आरोप हास्यास्पद लग सकते हैं, परंतु हमें  किंचित् मात्र भी भ्रमित नहीं होना चाहिए। यह एक गंभीर विषय है; जाति के नाम पर फैलाये जा रहे इस विषैले विमर्श का उद्देश्य भारत के शीर्ष वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा संस्थानों की विश्वसनीयता को नष्ट करना है, उन्हें हिन्दू- विरोधी और भारत-विरोधी वैश्विक राजनीतिकि धारा के सतत तूफान में निमग्न कर।

आईआईटी को निशाना बनाने वाली वैश्विक राजनीति कई स्तरों पर काम करती है:

  • इन संस्थानों के बारे में भ्रामक सूचना फैलाना और यह कहकर उनकी वैश्विक विश्वसनीयता को नष्ट करना कि उनकी संरचना जातिगत भेदभाव को सक्रिय रूप से बढ़ावा देती है।
  • आईआईटी की सफलता के मूल आधार “Meritocracy” यानी योग्यता के सिद्धांत को निशाना बनाना, यह तर्क देकर कि आईआईटी के संदर्भ में योग्यता एक आडम्बर मात्र है, एक प्रकार की सांस्कृतिक पूंजी जो उच्च जाति के विशेषाधिकार को सुविधाजनक रूप से छुपाने का कार्य करती है।
  • आईआईटी स्नातकों को निशाना बनाकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर उनके विरुद्ध वातावरण तैयार कर अंतर्राष्ट्रीय तकनीकी कंपनियों को उन्हें नौकरी पर रखने से हिचकिचाहट पैदा करना ।
  • अमेरिका में भारतीय तकनीकी तंत्र पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार कर यह आरोप लगाना कि उच्च जाति के हिंदू अनिवार्य रूप से अपने निम्न जाति के समकक्षों के साथ भेदभाव करते हैं, चाहे वे विश्व के किसी भी भाग में निवास करते हों। यानि यदि कोई तथाकथित “उच्च-जातीय” हिन्दू है तो जातिगत भेदभाव की कुरीति उसके चरित्र का एक अभिन्न अंग है, मात्र इसीलिए क्योंकि वह हिंदू है।
आईआईटी में जाति का शस्त्रीकरण

 भारत की विपक्षी पार्टी के एक प्रमुख राजनीतिक नेता ने हाल ही में योग्यता की अवधारणा पर सवाल उठाते हुए एक विवादास्पद बयान दिया। उन्होंने अमेरिका में कराई जाने वाली SAT परीक्षा की तुलना भारत की IIT प्रवेश परीक्षाओं से की, जिसमें उन्होंने यह कहा कि इन परीक्षाओं के परिणाम परीक्षा पत्र बनाने वालों के वर्ग और जातिगत विशेषाधिकार से प्रभावित होते हैं । उन्होंने कथित तौर पर कहा, “इसका अर्थ है कि इस तंत्र को नियंत्रित करने वाला व्यक्ति योग्यता के मानदंड भी निर्धारित करता है। यदि आप किसान के पुत्र हैं और मैं नौकरशाह का पुत्र हूं तो अगर आप परीक्षा पत्र तैयार करते हैं  , तो मैं अनुत्तीर्ण हो जाऊंगा।” सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने इस कहानी का प्रयोग यह सुझाव देने के लिए किया कि अगर IIT  के प्रश्नपत्र तैयार करने वाले उच्च जाति के हैं और दलित अनुत्तीर्ण हो रहे हैं, तो समय की यही माँग है कि दलित प्रश्नपत्र तैयार करें।[1]

SAT और IIT प्रवेश परीक्षाओं के संदर्भ में योग्यता की अवधारणा को लेकर की गयी यह अतिसरलीकरण से ग्रसित भड़काऊ एवं विषैली टिप्पणी अमेरिका से निकल विश्व भर में पैर पसारने वाली उस हिन्दू विरोधी राजनीति का नमूना मात्र है जो अब भारत की तकनीकी और विज्ञान व गणित संबंधी शिक्षा प्रणाली पर निशाना साध रही है। आईआईटी से निकलने वाले हर मुद्दे पर जबरन जाति विमर्श थोपना अब एक चलन बन गया है।

इस कपटी प्रवृत्ति का एक उदाहरण यह है कि कैसे छात्रों की आत्महत्या की घटनाओं को जाति व्यवस्था से जोड़ा जा रहा है। उदाहरण के लिए, जुलाई 2023 में आईआईटी दिल्ली में एक 20 वर्षीय बी टेक छात्र की आत्महत्या को लेकर Outlook की 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि इस घटना ने “अंततः इन प्रमुख संस्थानों में जाति-आधारित भेदभाव के विषय को लेकर संवाद के मार्ग पुनः खोल दिये है।” [2]

अक्टूबर 2023 में The Wire द्वारा प्रकाशित एक अन्य लेख में आईआईटी दिल्ली के दो छात्रों की हाल ही में हुई आत्महत्याओं के विषय में बात की गई है, जिसमें कहा गया है कि आईआईटी दिल्ली के आधिकारिक मीडिया निकाय, बोर्ड फॉर स्टूडेंट पब्लिकेशन्स (बीएसपी) ने जाति भेदभाव पर एक कैंपस-आधारित सर्वेक्षण शुरू किया था, जिसे बाद में वापस लेना पड़ा क्योंकि कई छात्रों ने इसे असंवेदनशील और अप्रासंगिक पाया।[3]

लेख में 2020 में आईआईटी दिल्ली के मीडिया निकाय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के बारे में बात की गई है, जिसमें दावा किया गया है कि 545 स्नातक छात्रों की प्रतिक्रियाओं पर आधारित सर्वेक्षण से पता चला है कि सामान्य श्रेणी के तीन में से दो छात्रों को लगता है कि आरक्षित श्रेणियों के छात्रों को आईआईटी दिल्ली में अनुचित लाभ मिलता है। लेख में स्पष्ट रूप से घोषणा की गई है कि 14 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों ने कहा कि उन्हें आईआईटी में जातिवाद का सामना करना पड़ा, लेकिन उन दावों का समर्थन करने के लिए लेख में कोई ठोस उदाहरण नहीं दिया गया है।[4]

लेख में फरवरी 2023 में आईआईटी बॉम्बे के 18 वर्षीय छात्र दर्शन सोलंकी की आत्महत्या का भी उल्लेख है और कहा गया है, “हाल के वर्षों में, विभिन्न आईआईटी संस्थानों में संस्थागत समस्याओं के कारणवश तीव्र जातिवाद और बहुजन समुदाय के छात्रों की मृत्यु के कई मामले सामने आए हैं। जहां एक ओर  संस्थान ने उत्तरदायित्व लेने से इनकार कर दिया है, इस प्रकार के सर्वेक्षण उस  शत्रुता से भरे और कठिन माहौल का आभास कराते हैं जिससे छात्रों को  गुजरना पड़ता है”। आईआईटी-बॉम्बे के छात्र दर्शन सोलंकी की मौत के संदर्भ  में, लेख में आरोप लगाया गया है कि उनकी मृत्यु के कारण की जांच करने वाली विश्वविद्यालय समिति ने जानबूझकर जाति के मुद्दे को खारिज कर दिया और उनकी मृत्यु के लिए “खराब अंकों”  की समस्या को जिम्मेदार ठहराया। [5]

Maktoob Media नामक एक मीडिया वेबसाइट इस आईआईटी जाति विमर्श को आगे बढ़ाती है और आईआईटी को उच्च जाति के विशेषाधिकार का गढ़ चित्रित करने हेतु चुनिंदा लोगों के वक्तव्य साँझा करती है। “दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और लेखक एन. सुकुमार ने आईआईटी में छात्रों की मृत्यु की घटना को संबोधित करते हुए ‘आत्महत्या’ शब्द को ‘संस्थागत हत्या’ शब्द से बदलने की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया।”, इस वेबसाइट के एक लेख में कहा गया है। [6]

ऐसी कई मीडिया रिपोर्ट हैं जो चुनिंदा मामलों की रिपोर्टिंग कर आईआईटी छात्रों की आत्महत्याओं के मामलों को जबरन जातिगत भेदभाव से जोड़ने का प्रयास कर रही हैं- अधिकतर बिना प्रमाण के। यदि हम इन मीडिया रिपोर्ट्स के तथाकथित तर्क के अनुसार चलें, तो पश्चिमी विश्वविद्यालय परिसरों में हुई किसी भी हिंदू छात्र की मृत्यु की जांच हिंदूद्वेष के मामले के रूप में की जानी चाहिए, और पश्चिमी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले प्रत्येक अश्वेत छात्र द्वारा की गई आत्महत्या के लिए नस्लीय भेदभाव को दोषी ठहराया जाना चाहिए।

दुर्भाग्यवश, भारतीय समाज में छात्र-आत्महत्या एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो मुख्यतया तीव्र प्रतिस्पर्धा और शैक्षणिक दबाव के तनाव से प्रेरित है। इस महामारी के शिकार समाज के सभी वर्गों से आते हैं,  न कि केवल तथाकथित दलित वर्ग से। उदाहरण के लिए, राजस्थान का कोटा शहर, जो विभिन्न व्यावसायिक प्रवेश परीक्षाओं के लिए ट्रेनिंग हेतु कोचिंग सेंटरों के लिये विख्यात  है, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों के बीच आत्महत्या की बढ़ती दरों को लेकर चर्चा का केंद्र रहा है। [7] यद्यपि इस बात को लेकर दूर- दूर तक कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि कोटा में होने वाली इन छात्र आत्महत्याओं का संबंध जातिगत भेदभाव से है। वास्तव में, छात्र-आत्महत्या का त्रासदीपूर्ण विषय विश्व भर में बढ़ती चिंता का केंद्र है। फिर, IIT को लेकर इस प्रकार का भ्रामक विमर्श भला क्यों गढ़ा जा रहा है, और आत्महत्या पीड़ितों की जाति को क्यों उछाला जा रहा है?

The News Minute में प्रकाशित एक लेख में सुझाव दिया गया है कि “दलितों की असमय मृत्यु रोकने हेतु IIT को अपनी पुरानी अकादमिक मूल्यांकन प्रक्रिया  को समाप्त कर देना चाहिए”।  लेख आईआईटी संस्थानों में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं के लिए निम्नलिखित कारकों को ज़िम्मेदार ठहराता है – शैक्षणिक दबाव, सामाजिक अलगाव और भेदभाव, मानसिक स्वास्थ्य सहायता की कमी एवं वित्तीय संघर्ष। यह IIT में “संस्थागत सुधारों” की मांग करता है, व उन्हें “शैक्षणिक मूल्यांकन की भेदभावपूर्ण और पुरानी नीति” को समाप्त करने के लिए कहता है। लेख में कहा गया है कि IIT जानबूझकर कक्षा के अंतिम पायदान पर आसीन यानि पढ़ाई में सर्वाधिक कमज़ोर 10-15 प्रतिशत छात्रों को अनुत्तीण कर देते हैं। लेख में सुझाव दिया गया है कि आईआईटी को इस प्रकार के प्रावधान लाने चाहिये कि संस्थान में प्रवेश लेने वाले सभी छात्र डिग्री प्राप्त करने में सफल हों, यदि चार साल की पूर्व निर्धारित अवधि में नहीं तो छह साल में, इत्यादि इत्यादि। [8]

इसके अतिरिक्त लेख में आईआईटी की नियुक्ति प्रणाली पर भी निशाना साधा  गया है।  इन संस्थानों पर अपनी नियुक्ति प्रक्रिया में एससी/एसटी/ओबीसी आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करने का आरोप लगाया गया है, और कहा गया है कि उनके 95 प्रतिशत शिक्षक सवर्ण (उच्च जाति के हिंदू) वर्ग से हैं। [9]

वास्तविकता यह है कि आईआईटी कठोर आरक्षण नीति का पालन करते हैं, जहां आरक्षित वर्ग के छात्रों को कई लाभ मिलते हैं, जैसे की आईआईटी में प्रवेश हेतु सामान्य श्रेणी के छात्रों की अपेक्षा कमतर न्यूनतम अंक सीमा, कम आवेदन शुल्क और कम कोर्स/प्रवेश शुल्क। आरक्षित वर्ग के छात्रों को आईआईटी प्रवेश परीक्षा में न्यूनतम अंक सीमा को लेकर जो भारी छूट मिलती है, वास्तव में, यह एक एक कारण है जिसकी वजह से आरक्षित श्रेणी के छात्र अकादमिक रूप से संघर्ष करते हैं। फिर भी आरक्षित श्रेणी के छात्रों के शैक्षणिक प्रदर्शन संबंधी कमियों को संबोधित करने हेतु सकारात्मक संवाद करने के बजाय, मीडिया जातिगत भेदभाव पर जोर देना पसंद करता है व आईआईटी के शैक्षणिक मानकों को कमतर करने का परामर्श देता है।

शाकाहार पर विवाद

शाकाहार को जाति के चश्मे से तेजी से देखा जा रहा है। यद्यपि वैश्विक हिन्दू विरोधी तंत्र “veganism”, जो की एक प्रकार का शाकाहार ही है ( जिसमें जानवरों के दूध का सेवन या फिर उससे बने उत्पादों का सेवन वर्जित माना जाता है), का प्रबल समर्थक है, यह शाकाहार को उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा घोषित जातिगत विशेषाधिकार के रूप में देखता है, जो तथाकथित “निचली जातियों” से संबंधित लोगों को अलग-थलग करता है, जो इन हिंदू विरोधी वैश्विक प्रचारकों के अनुसार, अनिवार्य रूप से मांसाहारी हैं।

यदि इन दावों का हम वास्तविकता के धरातल पर आँकलन करें तो पायेंगे कि इनका सच्चाई से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है। भारतीय समाज से परिचित कोई भी व्यक्ति यह जानता होगा कि कई भारतीय मुसलमान शाकाहारी हैं और कई ब्राह्मण मांसाहारी भोजन का सेवन करते हैं। जब मुसलमान हलाल आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करते हैं, तो इसे जातिवाद या अभिजात्यवाद को बढ़ावा देने के रूप में नहीं देखा जाता है। परंतु विचित्र बात यह है कि हिंदू शाकाहारियों को जातिगत भेदभाव करने वाले के रूप में तेजी से चित्रित किया जा रहा है।

जुलाई 2023 में, कुछ मीडिया रिपोर्टों के चलते, आईआईटी बांबे विवाद का केंद्र बन गया,  जिनमे कहा गया था कि संस्थान ने शाकाहारियों के भोजन ग्रहण करने हेतु स्थान विशेष की व्यवस्था की है, और मांसाहारियों को उस क्षेत्र में खाने की अनुमति नहीं है। आईआईटी परिसर में छात्रों के एक समूह ‘अंबेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्किल’ (एपीपीसी) ने कथित तौर पर सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को उठाया और आईआईटी बांबे पर आरोप लगाया कि भले ही संस्थान के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, परंतु कुछ लोग स्वेच्छा अनुसार भोजन ग्रहण करने के सार्वजनिक स्थान में कुछ क्षेत्रों को “केवल शाकाहारी” के रूप में नामित कर रहे हैं, और इस प्रकार मांसाहारी छात्र अपमानित महसूस कर रहे हैं। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उनके ख़िलाफ़ भेदभाव किया जा रहा है।[10]

यह एक बड़ा विवाद बन गया, जहां कई मीडिया रिपोर्टों ने भोजन ग्रहण करने के क्षेत्र में शाकाहारियों के लिए अलग से भोजन करने की जगह के कथित नामकरण के आधार पर आईआईटी बॉम्बे को जातिवादी घोषित कर दिया । यद्यपि सितंबर 2023 में, आईआईटी-बॉम्बे ने आधिकारिक तौर पर अपने छात्रावास की कैंटीन में शाकाहारियों के लिए अलग से भोजन करने की व्यवस्था हेतु छह टेबल निर्धारित किए। [11] इस विवाद में एक नवीन मोड़ तब आया जब छात्रों के एक समूह ने कथित तौर पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए “केवल शाकाहारी” भोजन के लिए निर्धारित की गई टेबल पर मांस खाया। [12]

अक्टूबर 2023 में आईआईटी हैदराबाद में भी इसी तरह का विवाद हुआ, जब संस्थान ने कथित तौर पर छात्रों से पूछे गए एक सर्वेक्षण के आधार पर अपनी एक कैंटीन में शाकाहारियों के लिए एक अलग खंड स्थापित किया। आईआईटी हैदराबाद के इस निर्णय को भी मीडिया रिपोर्टों ने बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया, जिनमें से कई ने दावा किया कि यह “विशिष्ट भोजन के रूप में जातिगत गौरव” को महिमामंडित किया जा रहा था। [13]

इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि किस प्रकार एक साधारण मुद्दा जिसे अन्य समुदायों के संदर्भ में “उनकी सांस्कृतिक संवेदनशीलता का सम्मान” के रूप में देखा जाता है, हिंदुओं के परिपेक्ष में एक अत्यधिक विवादास्पद मुद्दा बन गया , और आईआईटी की छवि धूमिल करने हेतु, जाति विमर्श को इसमें मिर्च मसाला लगाकर जोड़ा गया ।

जाति विमर्श की सैद्धांतिक रूपरेखा

राजीव मल्होत्रा ​​और विजया विश्वनाथन ने अपनी पुस्तक ‘Snakes in the Ganga’ में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से उत्पन्न क्रिटिकल रेस थ्योरी (नस्लीय भेदभाव से संबंधित एक आलोचनात्मक परिकल्पना) को भारतीय संदर्भ में जाति की अवधारणा से जबरन जोड़ने के बढ़ते अकादमिक चलन पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में बताया गया है कि कैसे क्रिटिकल रेस थ्योरी  के सिद्धांत को जबरन  जाति की अवधारणा पर थोपा जा रहा है  ताकि भारतीय अमेरिकियों पर निशाना साधा जा सके, विशेषकर उन पर जो तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत हैं। अमेरिका में भारतीय अमेरिकियों की तुलना श्वेत नस्लवादियों से की जा रही है, और जातिगत भेदभाव को रोकने के नाम पर उन पर नज़र रखने और उन्हें जातिगत प्रोफाइलिंग के अधीन करने के लिए हर स्तर पर उपाय किए जा रहे हैं। [14]

क्रिटिकल रेस थ्योरी अमेरिकी सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षाविदों की एक शाखा है, जिसका प्रयोग सूरज येंगडे (हार्वर्ड केनेडी स्कूल में वरिष्ठ फेलो और हार्वर्ड के अफ्रीकी अमेरिकी अध्ययन विभाग के शोध सहयोगी) जैसे लोगों द्वारा व्यापक रूप से किया जा रहा है, जो दलित अक़ादमिक-राजनीतिक आंदोलन के प्रमुख सूत्रधारों में से एक हैं, यह तर्क देने के लिए कि यह नस्ल नहीं बल्कि जाति है जो सभी प्रकार के भेदभाव और असमानता की जड़ है। अतः  विडंबना यह है कि लंबे समय से उपनिवेशवाद के शिकार रहे हिंदुओं को तर्क के एक विचित्र मोड़ के माध्यम से अपराधी के रूप में चित्रित किया जा रहा है जो नस्लवाद सहित सभी वैश्विक असमानता और भेदभाव के लिए “उच्च जाति” हिंदुओं को उत्तरदायी मानता है!

अमेरिकी पत्रकार और लेखिका इसाबेल विल्करसन की पुस्तक “Caste: The Origins of Our Discontents” अमेरिका में नस्ली भेदभाव से उपजी गुलामी की कुरीति को भारत में जाति व्यवस्था के समकक्ष मानती है। वह अफ्रीकी अमेरिकियों को भारत की अनुसूचित जातियों से जबरन जोड़ने हेतु एक विचित्र कथानक बुनती है। इसाबेल विल्करसन की पुस्तक और भारतीय जाति व्यवस्था को लेकर इसमें किए गए विमर्श पर समग्र रूप से चर्चा इस लेख के दायरे से बाहर है। परंतु इस पुस्तक के मुख्य केंद्रबिंदुओं पर प्रकाश डालने के पीछे हमारा मुख्य प्रयोजन यह है कि पाठक के समक्ष इस पूरे विमर्श का एक चित्र उकेरा जा सके कि किस प्रकार आईआईटी में जाति से जुड़े मुद्दों पर हाल ही में जो पूरे मीडिया तंत्र का ध्यान केंद्रित है, उसके सीधे तार अमेरिकी सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षाविदों द्वारा किए जा रहे जाति की अवधारणा के हथियारीकरण से जुड़ते हैं।

केस स्टडी: अजंता सुब्रमण्यन का भारत की इंजीनियरिंग शिक्षा पर प्रहार

 हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान की प्रोफेसर अजंता सुब्रमण्यन ने The Caste of Merit: Engineering Education in India नाम से एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक यह विमर्श प्रस्तुत करती है कि आईआईटी जातिगत विशेषाधिकार के गढ़ हैं और इन संस्थानों में योग्यता के सिद्धांत की अवधारणा उच्च जाति के हिंदुओं के जातिगत विशेषाधिकार को छिपाने के लिए प्रयोग की जाने वाली सांस्कृतिक पूंजी का एक रूप मात्र है, और इन्हीं उच्च जाति के हिंदुओं की आईआईटी जैसे संस्थानों में बहुमत है।

सुब्रमण्यन क्रिटिकल रेस थ्योरी यानी आलोचनात्मक जाति परिकल्पना को आईआईटी के परिपेक्ष में प्रयोग में लाते हुए अपने मुख्य तर्क को विकसित करती हैं कि उच्च जातीय हिन्दू एक प्रकार के सांस्कृतिक पूँजीवाद के प्रतीक  हैं और आईआईटी जैसे संस्थान इन उच्च जातीय हिंद्युओं के लिए एक साधन मात्र जिसके माध्यम से वे अधिक से अधिक उच्च जातीय इंजीनियरों के उत्पादन की प्रक्रिया के माध्यम से अपनी इस सांस्कृतिक पूंजी को सशक्त करते हैं।

सुब्रमण्यन की थीसिस मुख्य तौर पर आईआईटीज़ के योग्यता के सिद्धांत पर निशाना साधती है, जिसके बारे में उनका तर्क है कि यह वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष नहीं है, बल्कि उच्च जातीय हिंदुओं द्वारा लागू किया जाने वाला एक प्रकार का आधिपत्य है, जिसे स्वतंत्रता के पश्चात आईआईटी की स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सफेदपोश इंजीनियरिंग शिक्षा (जो उच्च जातियों का गढ़ बन गया) और व्यावहारिक औद्योगिक कार्य (जिस तक “निम्न वर्ग” सीमित थे) के बीच के विभाजन के दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए।

उनकी पुस्तक का एक अध्याय विशेष रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर केंद्रित है। वह इस विषय को विस्तार देते हुए कहती हैं कि कैसे अंग्रेजों ने औपनिवेशिक प्रथाओं का प्रचार कर भारत में कारीगरों और इंजीनियरों को अलग अलग भागों में विभाजित कर दिया, जिसके माध्यम से शारीरिक श्रम और वैचारिक श्रम के बीच कृत्रिम विभाजन रेखाएँ खींच दीं और इस प्रकार इंजीनियरिंग जैसे पेशों पर, जिन्हें वैचारिक श्रम से जोड़ा जाने लगा, पर ब्राह्मणों का आधिपत्य हो गया।

राजीव मल्होत्रा ​​और विजया विश्वनाथन ने अकादमिक तर्कों और साक्ष्यों के माध्यम से आईआईटी के संदर्भ में अजंता सुब्रमण्यन की थीसिस का खंडन करते हुए एक पुस्तक लिखी है। ‘The Battle for IITs: A Defence of Meritocracy’  में लेखक तर्क देते हैं कि सुब्रमण्यन की थीसिस राजनीति से प्रेरित लगती है क्योंकि वह योग्यता की अवधारणा को पूरी तरह से खारिज करती है और आधुनिक मेरिटोक्रेसी के विचार को भारतीय जाति व्यवस्था से गलत तरीके से जोड़ देती है। पुस्तक यह भी उजागर करती है कि कैसे सुब्रमण्यन यादृच्छिक लोगों की व्यक्तिपरक राय के आधार पर व्यापक सामान्यीकरण करती है, जिन्हें वह अनुभवजन्य तथ्यों या साक्ष्यों के साथ इन विचारों का समर्थन किए बिना उद्धृत करती है:

सुब्रमण्यन आईआईटी संस्थागत ढांचे का समापन करने का पक्ष सामने रखती  हैं, जिससे इस उत्पीड़न से शोषित निम्न वर्ग को मुक्ति मिल सके। उनकी व्यापक सक्रियता सामाजिक ढाँचे को तितर बितर कर उसमे इस प्रकार के परिवर्तन लाने की  है, जिससे राजनीतिक वोट बैंकों,  कानून और विविधता के लिए कॉर्पोरेट नीतियों को बढ़ावा मिल सके। उनका रवैया निचली जातियों के प्रति संरक्षणात्मक है, जिसका अर्थ है कि उनमें योग्यता की कमी है और किसी भी प्रकार का योग्यता का सिद्धांत उनके विरुद्ध एक षड्यंत्र मात्र है। वह एक प्रकार से इस ओर इशारा कर रही हैं कि निचली जातियां समान अवसर दिए जाने पर भी योग्यता के आधार पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। वह इस बात को नज़रअंदाज़ करती हैं कि अमेरिका में भारतीय प्रवासियों की तकनीक-भारी संरचना जातिगत विशेषाधिकार के कारण नहीं है, बल्कि अमेरिकी आव्रजन नीति का परिणाम है जो उन लोगों को प्राथमिकता देती है जो अमेरिकी समाज में योगदान दे सकते हैं। अपनी थीसिस में संतुलन लाने हेतु, सुब्रमण्यन को अन्य प्रकार के अभिजात्य पदानुक्रमों को भी लक्षित करना होगा, जैसे कि भारतीय मुसलमानों के सामाजिक संगठन, जवाहरलाल नेहरू (स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री) की समाजवादी संरचनाएँ, हार्वर्ड के बिजनेस-मेडिकल- और कैनेडी स्कूल के पूर्व छात्र नेटवर्क। [15]

सुब्रमण्यन की अतिवादी और तर्कहीन थीसिस आईआईटी से जुड़ी हर वस्तु को जातिगत षड्यंत्र के रूप में चित्रित करती है – प्रवेश परीक्षाओं और परीक्षा प्रणाली से लेकर सिलिकॉन वैली में महत्वपूर्ण पदों पर आईआईटी के पूर्व छात्रों के विषय तक! वह एक पूरा अध्याय “आईआईटियन के बीच संस्थागत सांझेदारी ” की खोज के लिए समर्पित करती है। आईआईटी के पूर्व छात्रों द्वारा उद्यमिता समूह बनाने और आपस में नेटवर्किंग करने जैसी चीजों को एक तरह की जातिगत साजिश के रूप में चित्रित किया जाता है, यह तर्क देते हुए कि आईआईटीयन के बीच संस्थागत सांझेदारी सांस्कृतिक पूंजी का एक और रूप है।

सुब्रमण्यन की थीसिस की कड़ी आलोचना करते हुए मल्होत्रा ​​और विश्वनाथन बताते हैं कि कैसे वह आईआईटी में योग्यता को सांस्कृतिक पूंजी के रूप में देखती हैं जो जातिगत विशेषाधिकार को छुपाती है, लेकिन हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित  पश्चिमी विश्वविद्यालयों के मूल्यांकन के लिए समान सैद्धांतिक लेंस लागू नहीं करती हैं, जिन्हें, अगर हम सुब्रमण्यन के तर्क से चलते हैं, तो जातिगत विशेषाधिकार के कुलीन गढ़ों के रूप में भी वर्गीकृत किया जाना चाहिए। ‘The Battle for IITS’ के लेखक यह तर्क देकर उनके पाखंड और राजनीतिक एजेंडे को प्रभावी ढंग से उजागर करते हैं कि सामान्य तौर पर आलोचनात्मक सिद्धांतों और सामाजिक विज्ञान सिद्धांतों का निर्माण, अपने आप में ही विशेषाधिकारों की एक संस्थागत प्रणाली है जिसकी ख़ुद की अपनी संरचनाएँ हैं जो इन अकादमिक विशेषाधिकारों की चादर तले ढकी रहती हैं।  The Battle for IITs के लेखक यह थीसिस सामने रखते हैं कि सुब्रमण्यन जैसे विद्वानों को उदार कला के क्षेत्र में सांस्कृतिक पूंजीवादी के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि वे अपनी संस्थागत स्थिति के आधार पर एक विशिष्ट प्रकार के विशेषाधिकार का दावा करते हैं, जिसका उपयोग वे अपने विद्वत्ता की किसी भी सूचित आलोचना को चुप कराने के लिए करते हैं। [16]

अंतिम लक्ष्य: भारतीय अमेरिकी तकनीकी कार्यबल का विनाश

फरवरी 2023 में, सिएटल अमेरिका का पहला शहर बन गया जिसने जातिगत भेदभाव पर विशेष रूप से प्रतिबंध लगाने वाला कानून पारित किया। [17] उसी वर्ष कैलिफोर्निया राज्य विधानसभा द्वारा एक समान जाति-भेद-विरोधी विधेयक पारित किया गया। परंतु कैलिफोर्निया के गवर्नर न्यूजॉम ने अंततः इसे वीटो कर दिया, इस आधार पर कि यह अनावश्यक था क्योंकि “कैलिफोर्निया पहले से ही नस्ल, रंग, धर्म, वंश, राष्ट्रीय मूल, विकलांगता, लिंग पहचान, यौन अभिविन्यास और अन्य विशेषताओं के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, और राज्य कानून निर्दिष्ट करता है कि इन नागरिक अधिकार सुरक्षा से जुड़े प्रावधानों को उदारतापूर्वक समझा जाएगा।”[18]

पिछले कुछ वर्षों में अमेरिकी राजनीति में एक अति-आक्रामक हिंदू विरोधी गुट  का उदय हुआ है, जिसका नेतृत्व इक्वालिटी लैब्स जैसे संगठन कर रहे हैं, जो जातिगत भेदभाव से निपटने के नाम पर हिंदू धर्म के व्यवस्थित उन्मूलन का आह्वान करते हैं। इस गुट का अंतिम लक्ष्य अमेरिका में भारतीय तकनीकी कर्मचारी हैं, जिन्हें डीईआई (विविधता, समानता और समावेश) तंत्र और जाति-संवेदनशीलता कार्यशालाओं के माध्यम से तेजी से निशाना बनाया जा रहा है। इस प्रकार, हिंदुओं का एक बेहद सतही और नकारात्मक चित्रण प्रस्तुत किया जा रहा है और उन्हें उत्पीड़क के रूप में चित्रित किया जा रहा है, जबकि अमेरिकी समाज में जातिगत भेदभाव व्याप्त है, इस बात को लेकर दूर दूर तक कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है।

अमेरिका में हिंदू विरोधी गुट जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने के नाम पर हिंदुओं को अलग-थलग करने के लिए लगातार विधायी उपायों पर जोर दे रहा  है, भले ही अमेरिकी संविधान में पहले से ही वंश के आधार पर भेदभाव सहित सभी प्रकार के भेदभाव को संबोधित करने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं। उच्च जातीय हिन्दू अमेरिकियों के ख़िलाफ़ जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देने के आरोपों का एकमात्र आधार “अमेरिका में जाति” शीर्षक नाम से जारी की गयी एक रिपोर्ट है जो इक्वालिटी लैब्स द्वारा 2018 में प्रकाशित की गयी थी। यह रिपोर्ट अमेरिका में दलितों की प्रतिक्रियाओं की निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने का दावा करती है। परंतु इसके अंतर्निहित पूर्वाग्रहों और कार्यप्रणाली की लापरवाही को लेकर रिपोर्ट को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है।

“Snakes in the Ganga” पुस्तक में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को लेकर इस रिपोर्ट की आलोचना की गयी है:

  • अमेरिकी जनगणना दलितों को एक श्रेणी के रूप में नहीं पहचानती है, इसलिए अमेरिका में दलितों की संख्या का अनुमान लगाना असंभव है।
  • इक्वालिटी लैब्स सर्वेक्षण गैर-भारतीयों द्वारा भारतीयों के प्रति किए जाने वाले नस्लीय भेदभाव और भारतीय हिंदुओं द्वारा दलितों के प्रति किए जाने वाले विशिष्ट जाति-आधारित भेदभाव के शिकार उत्तरदाताओं के बीच कोई अंतर नहीं करता है जिससे रिपोर्ट के निष्कर्षों को लेकर भ्रम और संशय की स्थिति उत्पन्न होती है।
  • उत्तरदाताओं की चयन प्रक्रिया वैज्ञानिक और पारदर्शी नहीं थी। इक्वालिटी लैब्स ने सर्वेक्षण को स्वयं के ही द्वारा चुने हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं को भेजा। अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरदाता व्यापक अमेरिकी भारतीय जनसंख्या के प्रतिनिधि नहीं थे।
  • इक्वालिटी लैब्स ने अपने स्वयं के व्यक्तिपरक मानदंडों को लागू करते हुए सर्वेक्षण में प्राप्त हुई बीस प्रतिशत प्रतिक्रियाओं को “अतार्किक” या “अत्यधिक” घोषित कर सर्वे के परिणामों से बाहर कर दिया।
  • सर्वेक्षण ने वैज्ञानिक रूप से मान्य सांख्यिकीय नमूनाकरण और रिपोर्ट की गई जाति संबद्धता का बाहरी सत्यापन नहीं अपनाया।

हम यहां इक्वालिटी लैब्स और इसकी जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के विषय में विस्तार से नहीं बता सकते, परंतु हम मात्र इस बात पर प्रकाश डालना चाहते हैं कि किस प्रकार अमेरिका का शैक्षणिक और सामाजिक कार्यकर्ता तंत्र पश्चिमी देशों में व्याप्त नस्लीय भेदभाव के मुद्दे को जबरन भारत में जाति के मुद्दे से जोड़ने के लिए क्रिटिकल रेस थ्योरी ( नस्लीय भेदभाव को लेकर एक आलोचनात्मक परिकल्पना) जैसी परिकल्पनाओं का उपयोग कैसे करता है। इससे नए कानूनों और सामाजिक निगरानी के नवीन हथकंडों के माध्यम से  भारतीय अमेरिकी तकनीकी कर्मचारियों को लक्षित करने हेतु एक प्रकार का माहौल बनाया जाता है। इस प्रकार अमेरिका के शैक्षणिक तंत्र से निकला ये हिन्दू विरोधी विमर्श धीरे धीरे कर भारत में आईआईटी जैसे इंजीनियरिंग स्कूलों के बीच अपनी जड़ें फैलाता है। जाति के ख़िलाफ़ सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा देने के नाम पर ये सीधे तौर पर आईआईटी जैसे संस्थानों को विशुद्ध राजनीति का गढ़ बना इनकी अकादमिक गुणवत्ता और प्रतिष्ठा पर धावा बोलता है।

आईआईटी में सामाजिक विज्ञान और मानविकी अध्ययन के कोर्सेज़ में हुई वृद्धि ख़तरे की घंटी क्यों है?

 मानविकी और सामाजिक विज्ञान ( Humanities and Social Sciences)  शाखाओं से संबंधित  विषय आईआईटी में इसकी स्थापना के बाद से ही पढ़ाए जाते रहे हैं। यद्यपि इन संस्थानों में सामाजिक विज्ञान का प्रभाव पारंपरिक रूप से सीमित रहा है क्योंकि आईआईटी मुख्य रूप से वैज्ञानिक, तकनीकी और गणित संबंधी शिक्षा का केंद्र रहे हैं।

हालाँकि, बहु-विषयक शिक्षा के बढ़ते चलन के साथ आईआईटी में उदार कलाएँ लोकप्रिय हो रही हैं। कुछ साल पहले प्रमुख और लघु पाठ्यक्रमों के आगमन के साथ, इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री और मानविकी और सामाजिक विज्ञान शाखा में प्रमुख विषयों के साथ एक माइनर यानी अप्रधान विषय को लेने का चलन बढ़ा है। यहाँ तक कि मास्टर डिग्री स्तर पर भी बहु-विषयक शिक्षा की  प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय ज्ञान प्रणाली पर विभिन्न शैक्षणिक केंद्र शुरू करने के भारत सरकार के हाल ही में लिये गये निर्णय ने आईआईटी में मानविकी और सामाजिक विज्ञान शिक्षा को और अधिक बढ़ावा दिया है, जिससे आईआईटी में अंतर-विभागीय कार्यक्रमों की संख्या में वृद्धि हुई है। [19]

यद्यपि आईआईटी जैसे संस्थानों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान से संबंधित विषयों को पढ़ाने में कुछ भी गलत नहीं है, हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि भारत में किस प्रकार से हिंदू विरोधी और भारत विरोधी विमर्श को प्रचारित करने हेतु सामाजिक विज्ञान और उदार कलाओं का दुरुपयोग किया जा रहा है। हार्वर्ड सरीखे पश्चिमी विश्वविद्यालयों के कुलीन शैक्षणिक तंत्र द्वारा निर्मित और नियंत्रित ये विषैला विमर्श भारतीय विश्वविद्यालयों के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभागों तक पहुँचता हैं। दुर्भाग्यवश , भारत के अधिकांश कुलीन विश्वविद्यालय बिना किसी आलोचना के पश्चिम के सामाजिक विज्ञान और मानविकी ढांचे को अपना रहे हैं।

जैसा कि इस लेख में तर्क दिया गया है, आईआईटी में पैठ बनाने वाला जातीय विमर्श पश्चिमी मानविकी और सामाजिक विज्ञान तंत्र की ही एक शाखा है। सामाजिक विज्ञान शिक्षा के मानदंडों को पुनर्निर्धारित करने हेतु एक स्वदेशी ढांचे को विकसित किए बिना आईआईटी जैसे संस्थानों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभागों का विस्तार करना भारत में पश्चिम के विषैले विमर्श को ही बढ़ावा देगा।

समापन टिप्पणी

 ‘The Battle for IITs’ से लिए गए कुछ विचारों के साथ लेख को समाप्त करना शायद उचित होगा:

  • वैदिक सामाजिक विज्ञान को लेकर नये अकादमिक ढाँचों को विस्तार देने पर बल देना होगा। और ये विस्तार अंधराष्ट्रवाद या प्राचीन अतीत पर गर्व करने के आधार पर नहीं होना चाहिये बल्कि वैदिक ढांचे का उपयोग करके वर्तमान मुद्दों को संबोधित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
  • आईआईटी और अन्य शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता को सदृढ़ करें, जातिगत राजनीति पर ध्यान न देकर उत्कृष्टता पर ध्यान केंद्रित करें।
  • भारत में मौजूदा सामाजिक विज्ञान विभागों, जैसे Delhi School of Economics में होने वाले शोध की समीक्षा करें और जब यह शोध राष्ट्रीय हित के विपरीत हो तो फंडिंग में कटौती करें।
  • वोकिज्म यानि भारत विरोधी और हिंदू विरोधी राजनीति पर पूर्वपक्ष किया जाना चाहिए ताकि विद्वान, नीति निर्माता, नौकरशाह और अन्य हितधारक वोक इतिहास, सिद्धांतों, शब्दावली और टूलकिट को समझ सकें। [20]
संदर्भ 

[1] ‘Whites Failed SAT Exam In US When Blacks Started Setting Questions,’ Says Rahul Gandhi in Viral Video-News18;  https://www.news18.com/politics/whites-failed-sat-exam-in-us-when-blacks-started-preparing-it-says-rahul-gandhi-in-viral-video-8879884.html

[2]  How Caste Discrimination Plagues IITs;  https://www.outlookindia.com/national/how-caste-discrimination-plagues-iits-news-311553

[3]   The Wire: The Wire News India, Latest News, News from India, Politics, External Affairs, Science, Economics, Gender and Culture;   https://thewire.in/rights/iit-delhi-survey-glimpse-hostility-caste-discrimination

[4] Ibid.

[5] Ibid.

[6] Another IIT Delhi Student dies by suicide; Casteism, inequality,  institutional harassment continues to claim lives;  https://maktoobmedia.com/india/another-iit-delhi-student-dies-by-suicide-casteism-inequality-institutional-harassment-continues-to-claim-lives/#google_vignette

[7]   NEET aspirant, 19, hangs herself in Rajasthan’s Kota, 8th suicide this year – India Today;      https://www.indiatoday.in/india/story/teen-student-hangs-self-kota-rajasthan-neet-preparation-suicide-police-2520172-2024-03-28

[8]   IITs should end outdated academic assessment to stop loss of Dalit lives;    https://www.thenewsminute.com/news/iits-should-end-outdated-academic-assessment-to-stop-loss-of-dalit-lives

[9] Ibid.

[10]   IIT Bombay Food Discrimination Complaint: ‘Vegetarians in IIT-Bombay blocking space in mess for themselves’ | India News – Times of India; https://timesofindia.indiatimes.com/india/vegetarians-in-iit-bombay-blocking-space-in-mess-for-themselves/articleshow/102258907.cms

[11]   Months after row, IIT-B designates six tables for vegetarians in its hostel canteen | Mumbai News – The Indian Express;  https://indianexpress.com/article/cities/mumbai/months-after-row-iit-b-designates-six-tables-for-vegetarians-in-its-hostel-canteen-8959244/

[12]   Day after mess segregated, IIT-B students eat meat at ‘veg only’ table as sign of protest – The Hindu;  https://www.thehindu.com/news/national/day-after-mess-segregated-iit-b-students-eat-meat-at-veg-only-table-as-sign-of-protest/article67362531.ece

[13]   After Bombay, ‘ Pure Veg’ section and mess in IIT-Hyderabad;        https://www.thenewsminute.com/telangana/after-bombay-pure-veg-section-and-mess-in-iit-hyderabad

[14] Snakes in the Ganga: Breaking India 2.0 by Rajiv Malhotra and Vijaya Viswanathan

[15] The Battle for IITs: A Defense of Meritocracy by Rajiv Malhotra and Vijaya Viswanathan, Chapter 3. Attacking Meritocracy At the Indian Institutes of Technology p. 42.

[16] Ibid. p. 49

[17] Seattle becomes the first U.S. city to ban caste discrimination: NPR ; https://www.npr.org/2023/02/22/1158687243/seattle-becomes-the-first-u-s-city-to-ban-caste-discrimination

[18]   California governor vetoes bill that would ban caste discrimination | CNN;  https://edition.cnn.com/2023/10/09/us/california-caste-discrimination-bill-veto/index.html

[19]    ; Humanities: Rise in Humanities and Social Sciences in the IITS – EducationTimes.com; https://www.educationtimes.com/article/campus-beat-college-life/99733530/rise-of-humanities-and-social-sciences-in-the-iits

[20] The Battle for IITs: A Defense of Meritocracy by Rajiv Malhotra and Vijaya Viswanathan, Ch 7. Battle for Higher Education: Social Sciences Versus Hard Sciences, p. 121.

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri is an independent journalist and writer currently based in Dehradun (Uttarakhand). Rati has extensive experience in broadcast journalism, having worked as a Correspondent for Xinhua Media for 8 years. She has also worked across radio and digital media and was a Fellow with Radio Deutsche Welle in Bonn. Rati regularly contributes articles to various newspapers, journals and magazines. Her articles have been recently published in "Firstpost", "The Sunday Guardian", " Organizer", OpIndia", "Hindupost", "Garhwal Post", "Sanatan Prabhat", etc.Rati writes extensively on issues concerning politics, geopolitics, Hindu Dharma, culture, society, etc. The points of intersection between geopolitics and culture are of special interest to her. A lot of her work explores issues concerning Bharat's civilizational and cultural ethos from a global perspective.She obtained her master’s degree in International Journalism from the University of Leeds, UK and a BA (Hons) English Literature from Miranda House, Delhi University. Rati is also a bilingual poet (English and Hindi) with two collections of English poetry to her credit. Her first poetry collection "The Sunset Sonata" has been published by Sahitya Akademi, India's National Academy of Letters. Her second poetry book "I'd like a bit of the Moon" has been published by Red River.

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