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भारतीय शिक्षा में पूर्वाग्रहों का पर्दाफाश: इसका वर्तमान स्वरूप  युवाओं को उनकी अपनी विरासत से कैसे दूर करता है

  भारत की शिक्षा प्रणाली से जुड़ी ऐतिहासिक विकृतियों, शैक्षणिक सक्रियता और पश्चिमी प्रभाव, इसके सामाजिक प्रभाव और आगे के रास्ते की आलोचनात्मक समीक्षा

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  • एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों का इस्लामी आक्रमणकारियों और मुगल साम्राज्य का महिमामंडन करने का इतिहास रहा है, जबकि इनमें अधिकतर हिंदू शासकों के योगदान को कम करके आंका गया है और भारत के प्राचीन इतिहास को हाशिए पर रखा गया है।
  •  इस्लामी आक्रमणकारियों को समन्वित सांस्कृतिक मूल्यों के प्रवर्तक के रूप में गलत और पक्षपाती रूप से चित्रित किया गया है और भारत के स्वदेशी हिंदू लोगों पर उनके द्वारा किए गए अत्याचार को छुपाया गया है।
  •  भारत के प्रमुख उदार कला, मानविकी और सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय हिंदू विरोधी और भारत विरोधी सक्रियता के केंद्र बन गए हैं।
  •  भारत में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा पश्चिमी ढाँचों पर अत्यधिक निर्भर है, जो भारतीय संदर्भ पर पश्चिमी सिद्धांतों के सरलीकृत मानचित्रण के माध्यम से भारतीय समाज और संस्कृति की पक्षपाती और समस्याग्रस्त आलोचना प्रस्तुत करती है।
  • भारत के प्रतिष्ठित उदार कला विश्वविद्यालय हार्वर्ड जैसे विश्व-विख्यात पश्चिमी विश्वविद्यालयों से वोकिज्म (पूँजीवाद और साम्यवाद का मिला जुला स्वरूप) के सिद्धांत का आयात कर रहे हैं।

 भारत शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहाँ आधुनिक शिक्षा प्रणाली अपने नागरिकों को व्यवस्थित रूप से अपनी संस्कृति और सभ्यता से नफ़रत करने और बिना किसी आलोचना के हर विदेशी चीज़ की प्रशंसा करने के लिए तैयार करती है। हम ऐसी स्कूली पाठ्यपुस्तकों को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं जिनमे  इस्लामी आक्रमणों से लेकर ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य तक हर “विदेशी हस्तक्षेप” को भारत को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, आधुनिक और गौरवान्वित बनाने का श्रेय दिया गया है। जहां एक तरफ़ विदेशी आक्रांताओं की “विरासत” का महिमामंडन किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ़  प्राचीन भारत की महिमा और उपलब्धियों से जुड़ी किसी भी चीज़ को एक षड्यंत्र सिद्धांत के रूप में दरकिनार कर दिया जाता है।

भारत की शिक्षा प्रणाली पर वामपंथी विचारधारा का सर्वाधिक प्रभाव यहाँ की   मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा पर देखा जा सकता है। यही कारण है कि हिंदू धर्म की निंदा करने और हिंदू धर्म और हिंदुत्व को लेकर ऊल जलूल दावे करने वाली घटनाएँ भारतीय शिक्षा जगत में एक आम बात बन गई हैं।

मार्च 2024 में, हरियाणा के अशोका विश्वविद्यालय के कई वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, जहाँ छात्रों को “ब्राह्मण-बनियावाद मुर्दाबाद” जैसे जातिवादी नारे लगाते हुए सुना जा सकता था। कथित तौर पर नारे लगाने वाले छात्र 26 मार्च को जाति जनगणना और आरक्षण की मांग को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन का हिस्सा थे।[1]

भारत का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जो लंबे समय से वामपंथी ताकतों का गढ़ रहा है, कई हिंदू विरोधी और भारत विरोधी घटनाओं और वामपंथी ताकतों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों का केंद्रबिंदु रहा है। “भारत तेरे टुकड़े होंगे” के नारे लगाने से लेकर हिंदू रीति-रिवाजों और परंपराओं व देवी देवताओं का उपहास उड़ाने वाले कार्यक्रम तक, जेएनयू में आम बात रहे हैं।

लगभग एक दशक पहले, अखिल भारतीय पिछड़ा छात्र मंच (एआईबीएसएफ) द्वारा स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में कथित तौर पर “महिषासुर दिवस” नामक एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसे जेएनयू में नियमित रूप से मनाया जाता था, जहाँ राक्षस महिषासुर, जिसे हिंदू इतिहास के अनुसार दुर्गा माँ ने मारा था, को शहीद के रूप में सम्मानित किया गया था।[2] [3]  [4]हिंदू धर्म ग्रंथों के पात्रों का इस तरह गलत चित्रण करना और उन्हें “दलित प्रतीक” के रूप में प्रस्तुत करना, भारतीय समाज के भीतरी मतभेदों को भुनाकर और  दलित इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसके स्थान पर अपने स्वयं के संस्करण को फ़िट बैठाने के एक बड़े मिशनरी प्रयास का हिस्सा था।

ये हिंदू विरोधी घृणा और प्रोपोगंडा के कुछ उदाहरण हैं, जिसका केंद्र प्रतिष्ठित भारतीय विश्वविद्यालयों के परिसर बन गए हैं। मानविकी और सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम की खुली प्रकृति को देखते हुए, छात्रों को कई दृष्टिकोणों से अवगत कराने की आड़ में सभी प्रकार के विभाजनकारी, हिंसक और राष्ट्र-विरोधी आंदोलनों और विचारधाराओं का प्रचार करना अपेक्षाकृत आसान है।

ज़ाहिर है, कोई भी कक्षा के भीतर प्रदान की जाने वाली शिक्षा और “कक्षा के बाहर” की गतिविधियों के बीच सरलीकृत विभाजन नहीं कर सकता। विश्विद्यालय परिसर में प्रचारित होने वाला विषैला हिंदू विरोधी विमर्श कक्षा के भीतर भी घुसपैठ बनाता है, जिससे भारतीय छात्रों को उनकी ख़ुद की संस्कृति और सभ्यता के ख़िलाफ़ भड़काने का काम आसान हो जाता है।

इस लेख में, हम भारत की स्कूली और उच्च शिक्षा प्रणाली के उन पहलुओं का  विस्तार से निरीक्षण करेंगे जो सभी प्रकार के भारत विरोधी और हिंदू विरोधी तत्वों को सक्रिय स्थान देते हैं। हम यह भी चर्चा करेंगे कि इनमें से कुछ मुद्दों को कैसे संबोधित किया जा सकता है।

एनसीईआरटी की पुस्तकें – भारतीय सभ्यता के आख्यान का कब्रिस्तान

 यह तथ्य कि भारत में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की इतिहास की पाठ्यपुस्तकें मुगल इतिहास के प्रति अत्यधिक  पक्षपाती रही हैं, सर्वविदित है। 1990 के दशक और 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में, लोग एनसीईआरटी की इतिहास की वे पुस्तकें पढ़ते हुए बड़े हुए, जिनमें मुगल शासकों को अनुपातहीन मात्रा में स्थान दिया गया था। समकालीन हिंदू शासकों के ऐतिहासिक योगदान को आम तौर पर एक या दो अनुच्छेद में ही सीमित कर दिया जाता था। साथ ही, उस समय की एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में भारत के प्राचीन इतिहास का बहुत कम या लेश मात्र भी वर्णन नहीं है। अगर है भी, तो वह पश्चिमी दृष्टिकोण से विकृत पुनर्कथन के रूप में सिमट कर रह गया है।

इसके अलावा, भारतीय ज्ञान प्रणालियों और विज्ञान, पर्यावरण, खगोल विज्ञान, चिकित्सा, गणित, दर्शन, कला, संगीत और नृत्य, साहित्य आदि क्षेत्रों में भारत ने जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उसका लगभग कोई उल्लेख नहीं मिलता। लंबे समय से, भारत में स्कूली पाठ्यपुस्तकें छात्रों को विज्ञान और सामाजिक विज्ञान पश्चिमी दृष्टिकोण के माध्यम से ही पढ़ा रही हैं।

इन पुस्तकों को पढ़ने से स्कूली छात्रों को कला, विज्ञान, दर्शन, आदि के विकास में प्राचीन भारत के योगदान के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिलती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि एक पीढ़ी जो ऐसे विषय-वस्तु को पढ़कर बड़ी हुई है, जो उन्हें एक विशिष्ट पश्चिमी दृष्टिकोण से विभिन्न विषयों के इतिहास और उपलब्धियों के बारे में बताती है, वह प्राचीन भारत के वैश्विक ज्ञान प्रणालियों में योगदान के बारे में बताने वाले सभी ज्ञान को एक षड्यंत्र सिद्धांत के रूप में ही देखेगी।

विडंबना यह है कि इस्लामी उपनिवेशवादियों के अपराधों को छिपाने की परियोजना 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद शुरू हुई। वाम-उदारवादी तंत्र ने समान विचारधारा वाले विद्वानों और विशेषज्ञों का एक समूह विकसित किया, जिनकी इतिहास लिखने की प्रेरणाएँ पूरी तरह से राजनीतिक थीं, और उन्होंने जानबूझकर इस्लामी आक्रमणकारियों के “बहुसांस्कृतिक” और “समकालिक” पहलू को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया (यहाँ तक कि उन मामलों में भी जहाँ यह शायद ही मौजूद था) और उनके इस्लामवादी एजेंडे को कम करके आंका। उनके प्रयासों को 1981 में गति मिली जब शिक्षा मंत्रालय के निर्देशों के तहत NCERT ने इतिहास लिखने के तरीके पर नए दिशानिर्देश जारी किए। यहाँ NCERT दिशा-निर्देशों के कुछ उल्लेखनीय अंश दिए गए हैं:[5]

  • ‘[…] देश के अतीत का अति-महिमामंडन वर्जित है’
  • ‘[…] गुप्ता युग को अब हिंदू धर्म का स्वर्णिम काल नहीं कहा जा सकता’
  • ‘मुस्लिम शासकों को विदेशी नहीं माना जा सकता, सिवाय उन शुरुआती आक्रमणकारियों के जो यहाँ नहीं बसे’
  • ‘औरंगज़ेब को अब इस्लाम का चैंपियन नहीं कहा जा सकता, और महाराष्ट्र की पाठ्यपुस्तक में शिवाजी का अति-महिमामंडन नहीं किया जा सकता’
  • ‘मध्ययुगीन काल को अंधकारमय काल या हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उथल-पुथल के समय के रूप में चित्रित करना वर्जित है’
  • ‘इतिहासकार मुसलमानों को शासक और हिंदुओं को प्रजा के रूप में नहीं पहचान सकते। धर्म के वास्तविक प्रभाव की जाँच किए बिना राज्य को धर्मतंत्र नहीं कहा जा सकता। राजनीतिक संघर्षों में धर्म की भूमिका को लेकर किसी प्रकार की अतिशयोक्ति की अनुमति नहीं है […] न ही आत्मसात और संश्लेषण की प्रवृत्तियों और प्रक्रियाओं की उपेक्षा और चूक होनी चाहिए।’

प्रख्यात इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक “भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी” में मध्यकालीन भारत में “समग्र संस्कृति” के अस्तित्व पर ज़ोर देते हुए राजनीतिक रूप से प्रेरित एनसीईआरटी दिशा-निर्देशों की चर्चा की है:

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के लेखन के बारे में एक और प्राथमिक एनसीईआरटी दिशा-निर्देश यह है कि समावेश और संश्लेषण की प्रवृत्तियों और प्रक्रियाओं की उपेक्षा और चूक, तथा एक समग्र संस्कृति का विकास’ ‘राष्ट्रीय एकीकरण के लिए हानिकारक है।

 दाहिने हाथ को नहीं पता कि बाएं हाथ ने क्या किया है। सबसे पहले, हमें इस्लामी आक्रमणकारियों को विदेशी न मानने के लिए कहा जाता है। इसके बाद, हमें आत्मसात और संश्लेषण की प्रवृत्तियों और प्रक्रियाओं की उपेक्षा न करने के लिए कहा जाता है। कोई यह पूछ सकता है: यदि इस्लामी आक्रमणकारी विदेशी नहीं थे, तो कौन किसके द्वारा आत्मसात हो रहा था? यदि ये आक्रमणकारी अपने साथ जो संस्कृति लेकर आए थे, वह विदेशी नहीं थी, तो किसके साथ क्या संश्लेषित हो रहा था? और एक समग्र संस्कृति का आविष्कार और प्रायोजन करने की आवश्यकता ही क्या है, जब तक कि इस्लामी संस्कृति स्वदेशी हिंदू संस्कृति के साथ विपरीत उद्देश्यों से काम करती हुई न पाई जाए? [6]

पिछले कुछ वर्षों में, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को संशोधित करने और अतीत की इस्लामी तुष्टिकरण परियोजना को पूर्ववत करने के लिए कई पहल की गई हैं। विडंबना यह है कि इन प्रयासों को कई पश्चिमी मीडिया आउटलेट, बौद्धिक संस्थानों, शिक्षाविदों, आदि द्वारा इतिहास के राजनीतिकरण के रूप में चित्रित किया गया है। दिलचस्प बात तो यह है कि यही संस्थाएँ भारत की स्वतंत्रता के बाद के पहले सात दशकों के दौरान इस्लामी आक्रमणकारियों का महिमामंडन करने और उन्हें एक समन्वित संस्कृति के प्रचारक के रूप में चित्रित करने और हिंदुओं पर उनके बड़े पैमाने पर अत्याचार और हिंदू संस्कृति और परंपराओं के बड़े पैमाने पर विनाश को छिपाने के लिए क्रमिक शासनों द्वारा जानबूझकर इतिहास को विकृत करने पर पूरी तरह से चुप रही हैं।

स्कूली पाठ्यपुस्तकों में सुधार की चुनौतियाँ: विचारधाराओं का टकराव

वर्ष 2021 में, शिक्षा, महिला, बाल, युवा और खेल संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने “स्कूली पाठ्यपुस्तकों की विषय-वस्तु और डिज़ाइन में सुधार” पर सार्वजनिक सुझाव आमंत्रित किए। वामपंथी उदारवादी गुट ने चर्चा के दौरान ही पाठ्यपुस्तक सुधार की प्रक्रिया को खटाई में डालने के लिए कई प्रयास किए। इस गुट के द्वारा यह आरोप लगाया गया कि “आरएसएस से जुड़े लोग” स्कूली पाठ्यपुस्तकों की इस सुधार प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं, मानो वामपंथी उदारवादी तंत्र के बाहर किसी भी इकाई को अस्तित्व में रहने और अपना दृष्टिकोण रखने का कोई अधिकार ही नहीं है।

The Indian Express द्वारा 2021 में प्रकाशित एक लेख की हेडलाइन है, “हाउस पैनल के समक्ष, आरएसएस से जुड़े लोगों ने एनसीईआरटी स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में निहित ‘विकृतियों’ को चिन्हित किया।[7] शिक्षा को लेकर बने संसदीय पैनल ने कथित तौर पर पूर्व एनसीईआरटी निदेशक जेएस राजपूत और भारतीय शिक्षण मंडल (बीएसएम) के प्रतिनिधियों से पाठ्यपुस्तक सुधार पर सुझाव सुने। बीएसएम प्रतिनिधियों ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में मुगल आक्रमणकारियों का महिमामंडन करने वाली सामग्री और पांड्या और चोला साम्राज्य जैसे भारतीय शासकों की भूमिका के बारे में सामग्री के कम प्रतिनिधित्व को लेकर अपनी चिंताएँ पैनल के समक्ष साँझा कीं। बीएसएम ने इस बात पर भी बल दिया कि हमें संदर्भ बिंदु के रूप में वैदिक काल में वापस जाने और भारतीय इतिहास की सभी अवधियों का आनुपातिक संदर्भ देने की आवश्यकता है।[8]

मुद्दा यह है कि वामपंथी उदारवादी तंत्र एनसीईआरटी की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के सुधार के परिपेक्ष्य में हर उस सुझाव को “दक्षिणपंथी साज़िश ” करार दे खारिज कर देता है, जो भारत की प्राचीन सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत को केंद्र में रख दिया गया हो। मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इसी विमर्श को आगे बढ़ाता है, यह कहते हुए कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में सुधार का कोई भी प्रयास शिक्षा का “भगवाकरण” करने के बराबर है।

एनसीईआरटी पाठ्यक्रम को बदलने की कथित राजनीतिक परियोजना को लेकर  “इतिहासकारों” के विरोध के बारे में बात करते हुए आपको कई मुख्यधारा के मीडिया लेख ऑनलाइन मिल जाएँगे। जुलाई 2021 में The Hindu द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि “भारत और विदेश के 100 से अधिक इतिहासकारों ने हाल ही में शिक्षा क्षेत्र को लेकर गठित संसदीय स्थायी समिति को एक पत्र भेजा, जिसमें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तावित बदलावों पर चिंता व्यक्त की गई और इस आरोप पर आपत्ति जताई गयी कि पुस्तकों में ‘अनैतिहासिक तथ्य और विकृतियाँ’ हैं”।[9]

विभिन्न मीडिया प्रकाशनों के कई अन्य लेख भारतीय इतिहास कांग्रेस द्वारा उठाई गई आपत्तियों पर चर्चा करते हैं, जिसने तथाकथित रूप से यह दावा किया कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में प्रस्तावित परिवर्तन शैक्षणिक कारणों के बजाय राजनीतिक कारणों से किए जा रहे हैं।[10]

संक्षेप में, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को भारतीय संस्कृति और सभ्यता के लोकाचार के करीब लाने के किसी भी प्रयास का वाम-उदारवादी तंत्र द्वारा आक्रामक रूप से विरोध किया जाता है। भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इस तंत्र के सुर में सुर मिलाता है, जिससे भारत के शिक्षित युवाओं में अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति पूर्वाग्रह पैदा होता है।

एनसीईआरटी की किताबों में सुधार आगे की राह

वाम-उदारवादी तंत्र की कड़ी आपत्तियों के बावजूद, शिक्षा की स्थायी समिति ने नवंबर 2021 में स्कूली पाठ्यपुस्तकों की सामग्री और डिजाइन में सुधार पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

समिति ने एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में इतिहास के चित्रण के संबंध में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं। उन्होंने कहा कि पाठ्यपुस्तकों में कई ऐतिहासिक हस्तियों और स्वतंत्रता सेनानियों को गलत तरीके से अपराधी के रूप में चित्रित किया गया है। इसने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में विभिन्न राजवंशों और अवधियों के असमान प्रतिनिधित्व पर भी ध्यान दिया। इस प्रकार, समिति ने 1947 के बाद के इतिहास और विश्व इतिहास पर अध्यायों को शामिल करने के लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को अपडेट करने की सिफारिश की। इसने विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों के स्वतंत्रता सेनानियों के चित्रण की समीक्षा की भी सिफारिश की, और इतिहास के लिए बेहतर शिक्षा प्रणाली विकसित करने के लिए नई तकनीकों को अपनाने का सुझाव दिया।[11]

समिति ने कथित तौर पर अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि एनसीईआरटी और एससीईआरटी (राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद) को स्कूली पाठ्यक्रम में वेदों और अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों की शिक्षाओं को शामिल करने पर विचार करना चाहिए। इसने विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा जैसे प्राचीन शिक्षण केंद्रों में इस्तेमाल की जाने वाली शिक्षा पद्धतियों को संशोधित रूप में अपनाने की भी सिफारिश की। इसके अलावा, रिपोर्ट में पाठ्यक्रम में मराठा और सिख इतिहास को शामिल करने के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया।[12]

एनसीईआरटी ने 2023 में एक rationalization प्रक्रिया शुरू की, जिसके तहत कक्षा 12वीं के इतिहास के पाठ्यक्रम में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। उदाहरण के लिए, मुगल साम्राज्य से जुड़े कई अध्याय हटा दिए गए। इसी तरह, “लोकतंत्र और विविधता” और “लोकतंत्र के लिए चुनौतियाँ, लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन” जैसे अध्यायों को भी कक्षा 10वीं की लोकतांत्रिक राजनीति-II की पाठ्यपुस्तकों से कथित तौर पर हटा दिया गया।[13]

इसके अलावा, संशोधनों के नवीनतम दौर में, एनसीईआरटी ने शैक्षणिक वर्ष 2024-25 के लिए अपनी कक्षा 12वीं की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के प्रारंभिक भारतीय इतिहास खंड में महत्वपूर्ण संशोधन किए हैं। संशोधित पाठ्यक्रम के अनुसार, छात्रों को अब हाल के पुरातत्व अध्ययनों के आलोक में आर्यन प्रवास सिद्धांत पर एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण पढ़ने को मिलेगा, जिन्होंने इसकी सत्यता पर संदेह जताया है।

इस प्रकार, हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति और पतन पर एक संशोधित अध्याय में, छात्रों को आर्यन प्रवास सिद्धांत को चुनौती देने वालों के तर्कों को समझने और इस तरह इस मुद्दे पर अपना स्वयं का आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का मौका मिलेगा। इसलिए, संशोधित पाठ कथित तौर पर यह दावा करेगा कि हड़प्पावासी इस क्षेत्र के स्वदेशी लोग थे।[14]

यह वास्तव में एक महत्वपूर्ण संशोधन है क्योंकि आर्यन प्रवास सिद्धांत को वैज्ञानिक साक्ष्यों द्वारा कई बार अवैज्ञानिक और मनगढ़ंत सिद्ध किया गया है, फिर भी भारतीय समाज को नस्लीय और जातीय रेखाओं की कृत्रिम विभाजन रेखाओं द्वारा बाँटने के षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए इस सिद्धांत का दुरपयोग जारी है। इसका प्रयोग विशेषकर उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच विभाजन पैदा करने के लिए खूब किया जाता है। हम ऐसी पाठ्यपुस्तकों को पढ़कर बड़े हुए हैं जो आर्य-द्रविड़ सिद्धांत को बढ़ावा देती हैं, न केवल इतिहास के संदर्भ में बल्कि हिंदी व्याकरण की पुस्तकों में भी, जिनमें आर्य और द्रविड़ भाषाओं पर चर्चा की गई है। यह दर्शाता है कि वामपंथी-उदारवादी गुट की हिंदू विरोधी और भारत विरोधी राजनीति ने शिक्षा प्रणाली में कितनी गहराई से घुसपैठ की है।

भारतीय कथानक का उपनिवेशीकरण: भारत में विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा

 भारतीय सभ्यता के कथानक का उपनिवेशीकरण केवल हाई स्कूल के पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं है; यह विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में भी व्याप्त है, विशेष रूप से सामाजिक विज्ञान और मानविकी के अध्ययन में। समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नृविज्ञान, सांस्कृतिक अध्ययन, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, लिंग अध्ययन, नारीवाद, अंग्रेजी साहित्य, मीडिया और संचार अध्ययन जैसे विषयों में अधिकांश पाठ्यक्रम पश्चिमी विद्वता पर केंद्रित है। दूसरे शब्दों में, जब छात्र इन विषयों के ऐतिहासिक प्रक्षेपवक्र और उनके मूल सैद्धांतिक सूत्रों की गहन समझ हासिल करते हैं, तो वे मुख्य रूप से संदर्भ बिंदु के रूप में पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन करते हैं।

उदाहरण के लिए, जब छात्र नारीवाद, उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर संरचनावाद, मार्क्सवाद आदि का अध्ययन करते हैं, तो वे इनका अध्ययन पूरी तरह से पश्चिमी ढांचे के अन्तर्गत करते हैं। भले ही पाठ्यक्रम में भारतीय विद्वान शामिल हों, लेकिन वे वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के बजाय मुख्य रूप से पश्चिमी विद्वानों द्वारा रचे गये मूल सिद्धांतों को ही बढ़ावा देते हैं। इससे संज्ञानात्मक असंगति पैदा होती है, जिससे छात्र और शिक्षक दोनों ही एक अजीब स्थिति में आ जाते हैं, जिसमें पश्चिमी सैद्धांतिक ढाँचे को भारतीय संदर्भों पर बिना किसी आवश्यक संशोधन के और भारतीय समाज और संस्कृति की अनूठी स्थितियों पर विचार किए बिना सरलीकृत और सतही रूप से थोपा जाता है। इसका अंतिम परिणाम पश्चिमी चीज़ों का एक सरलीकृत महिमामंडन, और हिंदू संस्कृति और समाज का अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से अपमान है।

उदाहरण के लिए, पश्चिमी सामाजिक सिद्धांतों और नारीवादी विद्वता को हिंदू समाज, उसके रीति-रिवाजों, परंपराओं, मूल्यों आदि पर बिना किसी आलोचना के लागू किया जाता है, जिसका परिणाम हिंदू समाज को पितृसत्तात्मक और प्रतिगामी घोषित करने वाला एक अतिशयोक्तिपूर्ण सामान्यीकरण होता है। पश्चिमी विद्वता का उपयोग विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में “परिवार” और “विवाह” की संस्थाओं पर हमला करने के लिए किया जाता है।

भारत में मानविकी और सामाजिक विज्ञानों में तथाकथित आलोचनात्मक विद्वत्ता का एक बड़ा हिस्सा भारतीय समाज पर पश्चिमी सिद्धांतों को लागू करना और फिर उन सिद्धांतों के आधार पर कुछ समुदायों, प्रणालियों, व्यवहार पैटर्न आदि के बारे में पक्षपातपूर्ण धारणाएँ बनाना है। सरल शब्दों में कहें तो, मानविकी और सामाजिक विज्ञानों के तथाकथित भारतीय विद्वान और बुद्धिजीवी अपने समाज, संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करते समय सुविधाजनक रूप से “उपनिवेशवादी नज़रिए” को अपनाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि भारतीय समाज, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और राजनीतिक व्यवस्था का बेहद नकारात्मक और वीभत्स चित्रण करने वाले साहित्य का ढेर लग जाता है, जिसका उपयोग पश्चिम द्वारा भारत को दबाने के लिए और अपने ख़ुद के भू राजनीतिक वर्चस्व को और मज़बूत करने के लिए किया जाता है। यानी मानविकी और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र से निकला साहित्य, जो भारतीय समाज का आलोचनात्मक अध्ययन करता है, अंततः एक ऐसा भू राजनीतिक हथियार बनके रह जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत के बढ़ते वर्चस्व पर अंकुश लगाना है।

“ब्राह्मणवादी पितृसत्ता”, “हिंदुत्व आतंक”, “भगवा आतंक”, “जाति विशेषाधिकार”, “ब्राह्मणवाद”, “मनुवाद”, “हिंदुत्व फासीवाद”, आदि कुछ ऐसे शब्द हैं जो आज के सामाजिक विज्ञान और मानविकी शोध में उदारतापूर्वक इस्तेमाल किए जाते हैं। अगर आप इन शब्दों को गूगल करेंगे, तो आपको सबसे प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिकाओं में ऐसे कई लेख मिलेंगे, जिनमें इन वाक्यांशों का इस्तेमाल भारतीय संस्कृति, समाज और राजनीति का बेहद वीभत्स और नकारतात्मक चित्रण करने के लिए किया गया है।इन वाक्यांशों के माध्यम से भारतीय समाज को एक हिंसक समाज के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, और वो भी बिना किसी प्रमाण के।

इस तरह के पक्षपाती और अपमानजनक वाक्यांशों का इस्तेमाल पश्चिमी सामाजिक विज्ञान सिद्धांतों को भारतीय संदर्भ पर ज़बरदस्ती थोपने का नतीजा है, जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि भारतीय विद्वान सामाजिक विज्ञान और मानविकी शोध की आड़ में भारत और उसके समाज और संस्कृति को बदनाम करने वाले सभी तरह के प्रेरित साहित्य का निर्माण करने के आदी हो गए हैं।

‘Snakes in the Ganga: Breaking India 2.0’  पुस्तक में राजीव मल्होत्रा ​​और विजया विश्वनाथन ने अशोका जैसे प्रतिष्ठित भारतीय विश्वविद्यालयों और हार्वर्ड जैसे विश्व-विख्यात पश्चिमी विश्वविद्यालयों के बीच के संबंधों का साक्ष्य-आधारित मार्ग प्रस्तुत किया है। इन लेखकों का तर्क है कि भारतीय विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान, मानविकी और उदार कला के अध्ययन में अमेरिकी शैक्षणिक संस्थानों से wokeism ( साम्यवाद और पूँजवीवाद का मिला-जुला स्वरूप) के सिद्धांत का का तेज़ी से आयात कर रहे हैं। मल्होत्रा ​​और विश्वनाथन का तर्क है कि भारत विरोधी अभिनेताओं और हितधारकों का एक पूरा गठजोड़ है जो भारत विरोधी, हिंदू विरोधी और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संभावित खतरा पैदा करने वाली अकादमिक छात्रवृत्ति के फलने-फूलने के लिए परिस्थितियाँ बनाते हैं:

अशोका विश्वविद्यालय उन लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थल है जिन्हें कई देशभक्त भारतीय भारत विरोधी ताकतों के रूप में चिह्नित करते हैं। यह वह जगह है जहाँ भारतीयों पर महत्वपूर्ण डेटाबेस एकत्र किए जाते हैं और उनका विश्लेषण किया जाता है, भारत तोड़ने के सिद्धांतों की अवधारणा बनाई जाती है और हस्तक्षेप की रणनीतियाँ विकसित, परीक्षण और परिपूर्ण की जाती हैं। यह वह जगह है जहाँ कई छात्रों को वैचारिक आख्यानों और रणनीतियों में प्रशिक्षित किया जाता है और फिर उन्हें संगठित किया जाता है। नए पीड़ित समूहों की पहचान की जाती है और उनका पोषण किया जाता है। निहित स्वार्थ वाले पश्चिमी देशों और भारतीयों द्वारा समर्थित होने के कारण, यह इस तरह से व्यवहार करता है कि राष्ट्र के प्रति इसकी निष्ठा पर सवाल उठाया जा सकता है। हम वैश्विक संबंधों के एक जटिल नेटवर्क की ओर इशारा करते हैं – भारत के लोगों, बुनियादी ढाँचों और संस्थानों का – जो चिंताजनक है। [15]

मल्होत्रा ​​और विश्वनाथन आगे तर्क देते हैं कि अशोका विश्वविद्यालय के अलावा, भारत के अन्य प्रतिष्ठित उदार कला विश्वविद्यालय, जैसे कर्नाटक में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, हरियाणा में ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, उत्तर प्रदेश में शिव नादर विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र में फ्लेम विश्वविद्यालय आदि, सामाजिक विज्ञान और मानविकी के पश्चिमी ढाँचों पर खुलकर निर्भर हैं, जबकि भारत के समान क्षेत्रों में बौद्धिक विद्वता के विशाल भंडार को अनदेखा करते हैं।[16]

भारत के सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षा तंत्र पर पश्चिमी प्रभाव और हिंदू विरोधी सक्रियता का उदय

जाति के मुद्दों को बढ़ाने के प्रति पश्चिमी शिक्षाविदों के जुनून ने भारत में “जाति कार्यकर्ताओं” की एक सेना का निर्माण किया है, जिनकी प्रसिद्धि का एकमात्र मानदंड हिंदू धर्म और संस्कृति के खिलाफ ज़हर उगलना है। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि पश्चिम द्वारा तैयार किए गए इन स्वयंभू “जाति कार्यकर्ताओं” में से कई ने उन लोगों के सशक्तिकरण के लिए ज़मीनी स्तर पर शून्य काम किया है, जिनके समर्थक होने का वे दिन रात दावा करते हैं। लेकिन यह विरोधाभास इन तथाकथित “जाति कार्यकर्ताओं” को प्रतिष्ठित पश्चिमी विश्विद्यालयों के सामाजिक विज्ञान डिपार्टमेंट्स द्वारा फंडेड अनेकों प्रकार की  छात्रवृत्तियाँ और फैलोशिप्स प्राप्त करने से नहीं रोकता है। ऊपर से मीडिया इन लोगों का जो बढ़ चढ़कर महिमामंडन करता है, सो अलग।

2021 में “Dismantling Global Hindutva” ( हिंदुत्व का संपूर्ण विखंडन) सम्मेलन नामक एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस चौंकाने वाले हिन्दुफोबिक  कार्यक्रम से कई प्रतिष्ठित अमेरिकी और अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय जुड़े थे। हालांकि, बाद में, हिंदुओं और हिंदुत्व की छवि धूमिल करने और इनका प्रोपोगंडा-रहित, नकारात्मक और वीभत्स प्रस्तुतीकरण करने के लिए इस आयोजन का कड़ा विरोध हुआ। जब विरोध के स्वर तेज होने लगे तो इनमें से कई विश्वविद्यालयों ने सम्मेलन से अपना पलड़ा झाड़ने की कोशिश करते हुए दावा किया कि वे आधिकारिक तौर पर इस आयोजन का समर्थन नहीं कर रहे हैं। फिर भी, उनके कुछ विभागों या संकाय सदस्यों ने अपनी व्यक्तिगत क्षमता में इसका समर्थन किया।

हालांकि यह सम्मेलन संबंधित हितधारकों द्वारा बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया, लेकिन अंततः इस आयोजन के खिलाफ बड़े पैमाने पर आक्रोश के कारण इसका प्रभाव कम होता गया और आख़िरकार कार्यक्रम को ऑनलाइन स्पेस तक ही सीमित रखा गया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस आयोजन के लिए कई भारतीय “बुद्धिजीवियों” और “विद्वानों” को वक्ताओं के रूप में आमंत्रित किया गया था।

हिंदू विरोधी कवि और स्वयंभू “जाति कार्यकर्ता” मीना कंदासामी, जो हिंदू देवी-देवताओं को अपमानित करने वाली अपनी तीखी कविताओं के लिए जानी जाती हैं, इस कार्यक्रम के वक्ताओं में से एक थीं। एक अन्य आमंत्रित वक्ता दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर थीं, जो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं। नंदिनी सुंदर एक जानी-मानी नक्सल समर्थक हैं और उन पर कथित तौर पर छत्तीसगढ़ के सुकमा में एक आदिवासी व्यक्ति की हत्या और ग्रामीणों को सरकार के खिलाफ भड़काने का आरोप लगाया गया था।[17]

वामपंथी कार्यकर्ता आयशा किदवई, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी हैं, वामपंथी वृत्तचित्र फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन, जिनका रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर हिंदू विरोधी द्वेष का प्रचार करने का इतिहास रहा है, और कविता कृष्णन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (CPI-ML) की पोलित ब्यूरो सदस्य, और भारत में दूर-दराज़ के वामपंथी विरोधों को संगठित करने और प्रबंधित करने का ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाली कार्यकर्ता, वैश्विक हिंदुत्व सम्मेलन के लिए आमंत्रित किए गए कुछ वक्ता हैं।[18]

इन वक्ताओं की पृष्ठभूमि से पाठकों को उस अंतरराष्ट्रीय हिंदू विरोधी तंत्र के बारे में अंदाज़ा लग जाना चाहिए जो भारत में सभी प्रकार के हिंदू विरोधी शैक्षणिक कार्यकर्ताओं को बढ़ावा देता है। ऐसे “विद्वानों” और “कार्यकर्ताओं” को नियमित रूप से विभिन्न प्रतिष्ठित भारतीय विश्वविद्यालयों में अतिथि व्याख्यान, वार्ता, सेमिनार आदि कार्यक्रमों के माध्यम से अपने विचार साझा करने के लिए आमंत्रित किया जाता है, जिससे छात्रों का अपरिपक्व और कोमल मन उनकी घृणित और नफ़रत फैलाने वाली विचारधारा के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाता हैं।

इतना ही नहीं, कई हिंदू विरोधी लोग जाने माने भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित पदों और कुर्सियों पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं, जिससे छात्रवृत्ति और शोध के नाम पर उनके हिंदू विरोधी और भारत विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनती हैं।

कार्यकर्ता-शिक्षाविद का उदय: रेखाएँ धुंधली होती जा रही हैं

भारत में सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षा के संदर्भ में एक्टिविस्ट यानी सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के बीच की सीमाओं के धुंधले होने की आलोचनात्मक जांच की जानी चाहिए।

शिक्षाविदों को ज्ञान की एक वस्तुनिष्ठ खोज माना जाता है, जहाँ छात्रों को विभिन्न दृष्टिकोणों से अवगत कराया जाता है और उन्हें किसी विशेष विचारधारा का पालन करने के लिए व्यवस्थित रूप से तैयार नहीं किया जाता है। दुर्भाग्य से, शिक्षकों और प्रचारकों के बीच की रेखा तेज़ी से धुंधली होती जा रही है क्योंकि संकाय सदस्य छात्रों को विरोध और आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, कभी-कभी आक्रामक तरीके से आग्रह भी करते हैं।

भारतीय संदर्भ में “कार्यकर्ता-शिक्षाविद” के उदय ने शिक्षा के राजनीतिकरण और युवाओं और संवेदनशील लोगों के दिमाग को प्रभावित करने और उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता के खिलाफ पूर्वाग्रहित करने के लिए इसके प्रेरित उपयोग को और आगे बढ़ाया है।

जैसे-जैसे आईआईटी में उदार कलाओं और मानविकी शिक्षा का बोलबाला बढ़ रहा है, वामपंथी कार्यकर्ता तंत्र के विज्ञान शिक्षा में घुसपैठ करने और युवाओं का अनावश्यक रूप से राजनीतिकरण करने का खतरा भी बढ़ा है।

हमने लेख की शुरुआत में कई उदाहरण दिए हैं, ताकि पाठकों को भारतीय विश्वविद्यालयों में व्याप्त हिंदू-विरोधी और भारत-विरोधी woke तंत्र का अंदाजा हो सके। जैसे-जैसे उच्च शिक्षा तेजी से बहु-विषयक होती जा रही है, हिंदू-विरोधी ब्रेनवॉशिंग और प्रचार को लेकर, सिर्फ़ उदार कला के छात्र ही नहीं, बल्कि आईआईटी जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक संस्थानों के छात्र भी अति संवेदनशील बनते जा रहे हैं।

भारत भर में विभिन्न आईआईटीज़ के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभागों द्वारा विवादास्पद भारत-विरोधी कार्यक्रम और वार्ता आयोजित किए जाने के कई उदाहरण हैं। इस विषय पर विस्तृत चर्चा लेख के दायरे से बाहर होगी। लेकिन इससे पाठक को भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली के माध्यम से फैल रहे कार्यकर्ता तंत्र के हानिकारक प्रभावों का अंदाजा लग जाना चाहिए।

भारत में सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षा के लिए एक नया प्रतिमान स्थापित करना

हम विशेषज्ञ होने का दावा नहीं करते हैं, लेकिन भारत में सामाजिक विज्ञान और मानविकी शिक्षा में व्याप्त मुद्दों के हमारे विश्लेषण के आधार पर, हम इन विषयों के परिपेक्ष्य में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, एक भारतीय ढांचा विकसित करने का दृढ़ता से सुझाव देते हैं।

भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान के अध्ययन के लिए एक अद्वितीय शिक्षण प्रणाली और पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए भारतीय ज्ञान प्रणालियों में पारंगत विशेषज्ञों की भर्ती की जानी चाहिए।

जैसा कि हमने बताया, भारत में उदार कला और मानविकी विषयों के पाठ्यक्रम वर्तमान में पश्चिमी विचारकों और सिद्धांतों पर असंगत रूप से केंद्रित हैं। जब तक हम इस ढांचे को खत्म नहीं करते और उदार कला शिक्षा के लिए अपना स्वदेशी प्रतिमान विकसित नहीं करते, तब तक हम इसमें व्याप्त हिंदू विरोधी और भारत विरोधी पूर्वाग्रहों के मूल कारण को संबोधित करने में असक्षम रहेंगे।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 भारतीय भाषाओं पर ध्यान केंद्रित करने और विज्ञान, कला, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, दर्शन, अर्थशास्त्र आदि में ज्ञान की विभिन्न धाराओं में भारत के योगदान के बारे में एक विस्तृत खाका तैयार करती है। इसमें उच्च शिक्षा के संदर्भ में भारतीय भाषाओं, कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए समर्पित एक पूरा खंड है। इस खंड में भारतीय विश्वविद्यालयों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अध्ययन को आगे बढ़ाने और छात्रों में अपनी संस्कृति और विरासत के लिए गर्व की भावना पैदा करने के लिए कई बेहतरीन सुझाव दिए गए हैं।

भारत में स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों के मुख्य शिक्षण ढांचे में भारतीय भाषाओं के एकीकरण का प्रस्ताव देने के अलावा, एनईपी 2020 एक भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान (आईआईटीआई) की स्थापना का भी प्रस्ताव रखता है। इसमें मुख्यधारा की संस्कृत भाषा शिक्षा और खगोल विज्ञान, गणित, भाषा विज्ञान, दर्शन, नाट्यशास्त्र, योग आदि जैसे विषयों के साथ संस्कृत को एकीकृत करने की भी बात की गई है।[19]

ये सभी बेहद बेहतरीन सुझाव हैं, लेकिन इन्हें कैसे लागू किया जाएगा, यह मायने रखता है। इसके अलावा, NEP 2020 बहुविषयक शिक्षा को बढ़ावा देने पर विशेष ज़ोर देता है, खासकर उच्च शिक्षा के संदर्भ में। यह सैद्धांतिक रूप से तो  एक सराहनीय पहल है, लेकिन इसके उचित रूप से कार्यान्वित करने हेतु बहुत सी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है।

मानविकी और सामाजिक विज्ञान शिक्षा अपने वर्तमान स्वरूप में, जिसमें प्रतिष्ठित पश्चिमी विश्वविद्यालयों से सभी प्रकार के woke सिद्धांतों का आयात और भारतीय समाज और संस्कृति में उनका बिना किसी आलोचना के अनुप्रयोग है, बहुविषयक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कोई आदर्श नमूना नहीं है। यदि कोई बिना किसी आलोचना के बहुविषयक प्रतिमान का अनुसरण करता है, तो उदार कला विश्वविद्यालयों का activist ecosystem यानि सामाजिक कार्यकर्ता तंत्र भारत के सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थानों में घुसपैठ कर सकता है और विज्ञान शिक्षा का राजनीतिकरण कर सकता है।

NEP 2020, बहुविषयक शिक्षा के अपने खुले महिमामंडन में, यह समझने की भूल कर बैठा है कि भारत में सभी प्रकार की उदार कला और मानविकी शिक्षा भारत के सभ्यतागत और सांस्कृतिक लोकाचार को मजबूत करने और भारत को विश्व गुरु बनाने के सौम्य उद्देश्य से हो रही है। लेकिन जैसा कि हमने बताया है, ज़मीनी स्तर का परिदृश्य इसके बिल्कुल विपरीत है।

प्रतिष्ठित भारतीय विश्वविद्यालयों में उदार कला शिक्षा सभी प्रकार के हिंदू-विरोधी और भारत-विरोधी विचारों के प्रचार का माध्यम बन गई है। इसमें निहित स्वार्थ शामिल हैं, और प्रभावशाली हितधारकों का एक शक्तिशाली वैश्विक गठजोड़ शामिल है। इसलिए, इन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्ययन के विभिन्न केंद्रों के वित्त पोषण के बारे में जांच की जानी चाहिए, कि इन्हें किस प्रकार की फ़ंडिंग किन किन स्रोतों से मिलती है।

भारत की मानविकी और सामाजिक विज्ञान शिक्षा प्रणाली को “उपनिवेशवाद से मुक्त” करना, भारत विरोधी शोध करने वाले प्रतिष्ठित उदार कला विश्वविद्यालयों के वित्त पोषण गठजोड़ की जांच करना, धीरे-धीरे अकादमिक-सामाजिक कार्यकर्ता तंत्र को खत्म करना और मानविकी और उदार कला शिक्षा के लिए एक अद्वितीय भारतीय ढांचा विकसित करना तत्काल रूप से अत्यंत आवश्यक है।

संदर्भ 

[1]  Students raise ‘casteist slogans’ at Ashoka University;   https://www.newindianexpress.com/nation/2024/Mar/28/students-raise-casteist-slogans-at-ashoka-university

[2]   आख़िर क्या है महिषासुर शहादत दिवस?- know what is mahishasuya shahadat diwas – AajTak; https://www.aajtak.in/india/story/know-what-is-mahishsuya-shahadat-diwas-362236-2016-02-26

[3]  Pamphlet shown by Irani not ours: Mahishasura Divas organisers in JNU | Latest News Delhi – Hindustan Times; https://www.hindustantimes.com/delhi/pamphlet-shown-by-irani-not-ours-mahishasura-divas-organisers-in-jnu/story-KSiu7WjVe3NOPFlwTmIQ3M.html

[4] https://www.livemint.com/news/india/jnu-campus-defaced-with-anti-brahmin-slogans-probe-ordered-11669951884625.html

[5] Kamble, Bhaskar; “The Imperishable Seed: How Hindu Mathematics Changed the World and Why this History was Erased,” 2022, p. 365.

[6] The Story of Islamic Imperialism in India by Sita Ram Goel, 1994, p. 128.

[7]  Before House panel, RSS affiliate flags ‘distortions’ in NCERT school textbooks | Education News | The Indian Express; https://indianexpress.com/article/education/before-house-panel-rss-affiliate-flags-distortions-in-ncert-school-textbooks-7145361/

[8]    Revise textbooks with ‘distorted history’, they glorify Mughals – ex-NCERT head to House panel;  https://theprint.in/india/revise-textbooks-with-distorted-history-they-glorify-mughals-ex-ncert-head-to-house-panel/584957/

[9]  Historians write to Parliamentary panel against proposed changes to NCERT history textbooks – The Hindu; https://www.thehindu.com/news/national/historians-write-to-parliamentary-panel-against-proposed-changes-to-ncert-history-textbooks/article35419380.ece

[10] Decision To Change NCERT History Textbooks ‘Political’, Not ‘Academic’: Indian History Congress;   https://www.ndtv.com/education/decision-change-ncert-history-textbooks-political-not-academic-indian-history-congress-2488511

[11]  PRS Legislative Research | Standing Committee Report Summary; https://prsindia.org/files/policy/policy_committee_reports/Reforms%20in%20Content%20and%20Design%20of%20School%20Text%20Books_SCR_Summary_Final.pdf

[12]  Parliamentary committee on Education suggests review of textbooks;  https://www.opindia.com/2021/11/parliamentary-committee-on-education-suggests-review-of-history-textbooks-freedom-fighters-vedas/

[13]  Why NCERT removed chapters on Mughals from history syllabus. Explained | Today News;    https://www.livemint.com/news/india/why-ncert-removed-chapters-on-mughals-from-history-syllabus-explained-11680677937093.html

[14]   NCERT news: New NCERT text makes significant revisions in early-Indian history;      https://www.deccanherald.com/india/new-ncert-text-makes-significant-revisions-in-early-indian-history-2965662

[15]  Snakes in the Ganga: Breaking India 2.0 by Rajiv Malhotra & Vijaya Viswanathan, Ashoka University: Harvard University’s Junior Partner, p.517

[16]  ibid, p. 564

[17]  A brief introduction of the speakers at Dismantling Global Hindutva; https://www.opindia.com/2021/08/a-brief-introduction-of-the-speakers-at-dismantling-global-hindutva-conference/

[18] Ibid.

[19] National Education Policy 2020; https://www.education.gov.in/sites/upload_files/mhrd/files/NEP_Final_English_0.pdf , p.53-55

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri is an independent journalist and writer currently based in Dehradun (Uttarakhand). Rati has extensive experience in broadcast journalism, having worked as a Correspondent for Xinhua Media for 8 years. She has also worked across radio and digital media and was a Fellow with Radio Deutsche Welle in Bonn. Rati regularly contributes articles to various newspapers, journals and magazines. Her articles have been recently published in "Firstpost", "The Sunday Guardian", " Organizer", OpIndia", "Hindupost", "Garhwal Post", "Sanatan Prabhat", etc.Rati writes extensively on issues concerning politics, geopolitics, Hindu Dharma, culture, society, etc. The points of intersection between geopolitics and culture are of special interest to her. A lot of her work explores issues concerning Bharat's civilizational and cultural ethos from a global perspective.She obtained her master’s degree in International Journalism from the University of Leeds, UK and a BA (Hons) English Literature from Miranda House, Delhi University. Rati is also a bilingual poet (English and Hindi) with two collections of English poetry to her credit. Her first poetry collection "The Sunset Sonata" has been published by Sahitya Akademi, India's National Academy of Letters. Her second poetry book "I'd like a bit of the Moon" has been published by Red River.

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