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हिंदू मंदिरों का अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष: उन्हें राज्य के नियंत्रण से क्यों मुक्त किया जाना चाहिए

मंदिर प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप हिंदू समाज की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और धर्मार्थ नींव को खतरे में डालता है, जिससे हिंदू मंदिरों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता सुनिश्चित करते के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता उत्पन्न होती है।

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[संपादकीय टिप्पणी: यह लेख भारत में हिंदू मंदिरों पर सरकारी  नियंत्रण के मुद्दे पर तीन भागों वाली श्रृंखला का हिस्सा है। पहले भाग में पाठक को हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की राजनीति की कानूनी और संवैधानिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी दी गई। इसने स्वतंत्रता-पूर्व और स्वतंत्रता के बाद के कथानक का एक कालानुक्रमिक क्रम स्थापित किया, जिसने हिंदू मंदिरों के सरकारी नियंत्रण में रहने की घटना को आकार दिया, जबकि अन्य धर्मों की संस्थाओं को सरकारी हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति दी गई है।

यह लेख, श्रृंखला का दूसरा भाग, भारत में हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के मुद्दे के विमर्शात्मक आयामों पर ध्यान केंद्रित करेगा। हम यह गहराई से जानने समझने की कोशिश करेंगे कि हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों किया जाना चाहिए। लेख में तर्क दिया गया है कि हिंदू मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं हैं, बल्कि हिंदू संस्कृति और सभ्यता की आधारशिला हैं। इस प्रकार, राज्य की छाया में इन संस्थाओं का पतन अंततः हिंदू सभ्यता के पतन का कारण बनेगा।]

  • भारत में हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण को अक्सर झूठे तर्कों के ज़रिए उचित ठहराया जाता है जैसे कि: () हिंदू इतने भ्रष्ट हैं कि वे स्वाभाविक रूप से अपने संस्थानों को स्वतंत्र रूप से प्रबंधित करने में असमर्थ हैं और, (ख) चूँकि हिंदू उदासीन हैं और अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए अगर सरकार इससे बाहर निकलती है तो उनके धार्मिक संस्थानों की व्यवस्था चरमरा जायेगी।
  •  हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण भारतीय संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
  •  मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण हिंदुओं को दान पुण्य और सामाजिक कल्याण के कार्यों की पूर्ति हेतु परोपकार तंत्र बनाने से रोकता है।
  •  हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण अंततः हिंदू संस्कृति और सभ्यता को नष्ट कर देगा, जिससे हिंदुओं के धर्मांतरण की घटनाओं में और अधिक तेज़ी आएगी।

भारत में हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का चक्र निरंतर जारी है। हिंदू संस्कृति में मंदिर सिर्फ पूजा या अनुष्ठानों का स्थल नहीं हैं; वे हिंदू समुदाय के लिए भावनात्मक और आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत और रचनात्मक आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम भी हैं। मंदिर, लोगों को उनके समुदाय से जोड़ते हैं और सदियों से हिंदू संस्कृति और सभ्यता के महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं।

इसलिए, इन संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं पर सीधा, भेदभावपूर्ण और आक्रामक हमला है। यह न केवल हिंदू समाज को दान और सामाजिक कार्यों के लिए आवश्यक संसाधनों से वंचित करता है, बल्कि हिंदू संस्कृति और उससे जुड़ी परंपराओं की जड़ों को भी कमजोर करता है।

इस लेख में, हम एक ऐसे प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास कर रहे हैं, जिसे अक्सर बेतुका मानकर नकार दिया जाता है। प्रश्न है: हिंदू मंदिरों को राज्य के नियंत्रण से मुक्त क्यों किया जाना चाहिए? यह प्रश्न इसलिए बेतुका लगता है क्योंकि जिन परिस्थितियों ने हमें यह प्रश्न उठाने के लिए मजबूर किया है— राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा हिंदू मंदिरों के मामलों में अवांछित हस्तक्षेप— उन्हें कभी पनपने का मौका ही नहीं मिलना चाहिए था। लेकिन अब चूँकि यह हस्तक्षेप मौजूद है, इस लेख में हम उन तर्कों की एक सूची प्रस्तुत करेंगे जो बताते हैं कि हिंदू मंदिरों की वर्तमान स्थिति में सुधार क्यों अत्यंत आवश्यक है।

संवैधानिक तर्क

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 26, जिसे नीचे दोहराया गया है, स्पष्ट रूप से प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को अपने धार्मिक संस्थानों की स्थापना, रखरखाव और प्रबंधन करने, संपत्ति का स्वामित्व और अधिग्रहण करने और ऐसी संपत्तियों का प्रबंधन करने का संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है[1]:

सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, और स्वास्थ्य के अधीन, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी हिस्से को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं:

    1. धार्मिक और दान पुण्य व समाज कल्याण के उद्देश्यों हेतु संस्थानों की स्थापना और रखरखाव करना।
    2. धार्मिक मामलों में अपने स्वयं के मामलों का प्रबंधन करना।
    3. चल और अचल संपत्ति का स्वामित्व और अधिग्रहण करना।
    4. ऐसी संपत्ति का कानून के अनुसार प्रशासन करना।

अनुच्छेद 26 में धार्मिक मामलों में कहीं भी सरकार की भूमिका का उल्लेख नहीं है। इसलिए, हिंदू मंदिरों के प्रशासन को अपने हाथ में लेने के लिए बनाया गया कोई भी कानून, चाहे वह राज्य का हो या केंद्र का, असंवैधानिक है। इसके अलावा, यह तथ्य कि ये कानून केवल हिंदू मंदिरों पर लागू होते हैं और अन्य धर्मों पर नहीं, धर्म के आधार पर भेदभाव है – यह एक दम स्पष्ट है!

विडंबना देखिए कि अनुच्छेद 26 में दिया गया परिचयात्मक अस्वीकरण, जिसमें कहा गया है कि अधिकार “सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और सामाजिक शांति के अधीन हैं,” का उपयोग अक्सर हिंदू मंदिरों पर राज्य के नियंत्रण को सही ठहराने के लिए किया जाता है। कानून निर्माता बिना किसी ठोस प्रमाण के यह तर्क देते हैं कि अगर सरकार नियंत्रण छोड़ दे तो हिंदू धार्मिक संस्थान अराजकता और अव्यवस्था का शिकार हो जाएँगे।

दुर्भाग्य से, बहुत से हिंदू भी ऐसी मानसिकता में ग्रस्त हैं। हाल ही में PGurus को दिए एक साक्षात्कार में, प्रोफेसर आर. वैद्यनाथन ने हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का समर्थन किया। उनका तर्क था कि अगर सरकार ने नियंत्रण छोड़ दिया तो हिंदू मंदिर अराजकता और पतन के गहरे गर्त में गिर जाएँगे, क्योंकि अन्य धर्मों के अनुयायियों के विपरीत, आधुनिक समय के हिंदू पर्याप्त रूप से धार्मिक नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अधिकांश हिंदू मंदिरों में जाने के प्रति उदासीन हैं, और उनसे यह उम्मीद करना कि वे इन मंदिरों के प्रबंधन में भाग लेंगे, एक प्रकार की मूर्खता है। वैद्यनाथन का यह भी मानना है कि अगर हिंदू समुदाय बिना सरकारी हस्तक्षेप के मंदिरों का प्रबंधन करता है तो इन धार्मिक संस्थानों में भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा।[2]

हिंदू समाज का ऐसा अपमानजनक चित्रण “सफेद नस्ल का उत्तरदायित्व” की पुरानी औपनिवेशिक सोच को दर्शाता है, हालांकि इस बार यह भूरी (brown) त्वचा वाले संस्करण के साथ है। वास्तव में, वैद्यनाथन द्वारा हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट और लालची के रूप में दिखाना, और उन्हें अपने धार्मिक संस्थानों को चलाने के लिए अयोग्य बताना, विंस्टन चर्चिल की भारतीय स्वशासन की कुख्यात आलोचना की याद दिलाता है:

यदि भारत को स्वतंत्रता दी जाती है, तो सत्ता बदमाशों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी; सभी भारतीय नेता कमज़ोर और घटिया होंगे। उनकी बातें मीठी और दिल मूर्ख होंगे। वे सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे, और भारत राजनीतिक झगड़ों में उलझ कर अपना अस्तित्व खो बैठेगा। फिर एक दिन ऐसा भी आएगा जब भारत में हवा और पानी पर भी कर लगाया जाएगा।”

अब समय आ गया है कि हिंदू समाज इस आत्म-घृणा से बाहर निकले, जो भारतीयों के दिलों में गहरी बैठी हुई औपनिवेशिक सोच का नतीजा है। इस औपनिवेशिक सोच ने भारत के अंग्रेजी बोलने वाले हिंदू अभिजात वर्ग के मन में अपनी जगह बना ली है, और हिंदू संस्कृति और सभ्यता की नींव को कमजोर कर दिया है।

हिंदू संस्थाओं के अस्तित्व पर मंडराता खतरा:

2020 में, तमिलनाडु सरकार ने मद्रास उच्च न्यायालय को एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें बताया गया कि राज्य भर में लगभग 11,999 मंदिरों में कोई अनुष्ठान या पूजा नहीं हो रही थी और इन मंदिरों की कोई आमदनी भी नहीं थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 34,000 मंदिरों में केवल एक व्यक्ति ही मंदिर के मामलों का प्रबंधन कर रहा था। 37,000 मंदिरों में वार्षिक आमदनी 10,000 रुपये (लगभग 1200 अमेरिकी डॉलर) से भी कम थी। यह अनुमान है कि आने वाले कुछ वर्षों में लगभग 12,000 मंदिर विलुप्त हो जाएंगे।[3]

इसके अलावा, तमिलनाडु सरकार के एक आधिकारिक बयान में पुष्टि की गई है कि वहाँ के हिंदू मंदिरों में से देवी-देवताओं की कम से कम 1,200 मूर्तियाँ गायब हो गई हैं या चोरी हो गई हैं। “कई पुलिस अधिकारियों ने किताबें लिखकर दावा किया है कि तमिलनाडु के मंदिरों में प्रतिष्ठित मूर्तियों में से हज़ारों मूर्तियाँ नकली हैं, क्योंकि पिछले 25 वर्षों में मूल मूर्तियों को चुरा लिया गया है और उनकी जगह नकली मूर्तियाँ रख दी गई हैं।”[4]

साथ ही, यह अनुमान लगाया गया है कि तमिलनाडु सरकार के प्रशासन के तहत हिंदू मंदिरों से संबंधित 50,000 एकड़ से अधिक भूमि का कोई अता-पता नहीं है। इनमें से कई ज़मीनों को कथित तौर पर “धर्मनिरपेक्ष” या यहाँ तक कि “हिंदू-विरोधी” स्थानों में बदल दिया गया है। राज्य में हिंदू मंदिर की संपत्तियाँ सरकारी प्रबंधन के तहत केवल 200 करोड़ रुपये (25 मिलियन अमेरिकी डॉलर) की आय उत्पन्न करती हैं, जबकि सही आकलन के अनुसार यह आँकड़ा 6,000 करोड़ रुपये (750 मिलियन अमेरिकी डॉलर) प्रति वर्ष होना चाहिए।[5]

मंदिर के धन का सुनियोजित दोहन और इन पवित्र स्थलों को हिंदू संस्कृति और सभ्यता की जड़ों से अलग करने की साजिश अंततः भारत में हिंदू मंदिरों के पूरी तरह से विलुप्त होने का कारण बनेगी, जैसा कि कई मीडिया रिपोर्ट्स हमें चेतावनी देती हैं।

हिंदू सभ्यता पर घातक प्रहार

परंपरागत रूप से, हिंदू मंदिरों का तंत्र एक आत्मनिर्भर उद्यम के रूप में कार्य करता रहा है, जो पुजारी वर्ग, कारीगरों, और शिल्पकारों सहित लोगों के एक विविध समूह को जीविका प्रदान करता है।[6]

हिंदू मंदिरों के धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रशासन ने इस संवेदनशील सामाजिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक संतुलन को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। सरकार द्वारा नियंत्रित अधिकांश मंदिरों में, राज्य के अधिकारी पुजारियों और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति से संबंधित सभी निर्णय लेते हैं, जिससे हिंदू समुदाय के लोगों को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाता है।

हिंदू संस्कृति और सभ्यता पर यह व्यवस्थित और व्यापक हमला पारंपरिक प्रथाओं को कमजोर कर रहा है। ऐतिहासिक रूप से, प्रत्येक मंदिर के अपने नियम और परंपराएँ होती थीं, जिनके अनुसार मंदिर के प्रबंधन और पूजा पाठ से जुड़े कार्यों को समुदाय के बीच बाँटा जाता था। हिंदू मंदिरों की व्यवस्था को नियंत्रित करने वाली ये परंपराएँ एक जटिल सभ्यतागत और सांस्कृतिक ढाँचे का हिस्सा थीं। लेकिन सरकार ने जबरन धर्मनिरपेक्षीकरण थोपकर हिंदू समुदाय से इन अधिकारों को छीन लिया।

Isha Foundation के संस्थापक जग्गी सद्गुरु ने CNN के साथ एक साक्षात्कार में इस स्थिति को स्पष्ट रूप से समझाया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू मंदिर न केवल इंजीनियरिंग और वास्तुकला के अद्वितीय नमूने हैं, बल्कि इन्हें भक्तों की पीढ़ियों के समर्पण के माध्यम से बनाया और संजोया गया है। उन्होंने कहा कि यदि यह विरासत खो जाती है, तो यह हिंदू सभ्यता और पूरी दुनिया के लिए एक अपूरणीय क्षति होगी:

यह कुछ ऐसा है जिसे बनाने में लोगों की कई पीढ़ियाँ लगी हैं, खास तौर पर तमिलनाडु में। इसलिए हमें इनके संदर्भ को समझना चाहिए। इन्हें मंदिर नगर इसलिए नहीं कहा जाता क्योंकि यहाँ कोई मंदिर है। जिन लोगों ने इन भव्य मंदिरों को बनाया, वे खुद झोपड़ियों में रहते थे, ठीक है? उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि वे कैसे रहते हैं। यह भक्ति की भावना है जिसकी वजह से आज यह विरासत हमें मिली है। इनमें से कई जगहों पर जहाँ ये विशाल ग्रेनाइट मंदिर बनाए गए हैं, वहाँ इनके निर्माण के लिए कोई पत्थर उपलब्ध नहीं था। अतः उस समय में मंदिर बनाने वाले वे भक्त 300-400 किलोमीटर दूर से पत्थर ढो ढो कर लाते थे। जब ट्रक नहीं थे, और क्रेन भी उपलब्ध नहीं थे, ऐसे समय में ये लोग न जाने कितने टन ग्रेनाइट ख़ुद से ढो कर लाए, और उन्होंने नक्काशी की, और फिर मंदिर का निर्माण किया। इसमें 2-3 पीढ़ियों का काम लगा है। और जिस तरह से इसे प्रतिष्ठित किया गया है, उदाहरण के लिए, पतंजलि महर्षि द्वारा प्रतिष्ठित चिदंबरम मंदिर। आप इसे कैसे नष्ट कर सकते हैं? अगस्त्य मुनि द्वारा प्रतिष्ठित किए गए कई अन्य मंदिर हैं। आप उन्हें कैसे नष्ट कर सकते हैं? यह एक विरासत है जिसे आप नष्ट नहीं कर सकते। लेकिन दुर्भाग्य से, बहुत नुकसान हो चुका है। मुझे लगता है कि समय आ गया है; इन मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से बाहर निकालने का।[7]

लोमड़ी कैसे करेगी मुर्गीघर की रखवाली?

हिंदू मंदिरों का प्रबंधन धर्मनिरपेक्ष सरकार द्वारा किया जाना बेहद समस्याग्रस्त है। हिंदू मंदिर धार्मिक संस्थाएँ हैं, और यह स्वाभाविक है कि उनका प्रबंधन गहरी भक्ति रखने वाले हिंदू ही करें। मंदिर की परंपराओं और हिंदू धर्म की समझ न रखने वाले सरकारी प्रशासकों या हिंदू धर्म की आलोचना करने वाले कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों को इन मंदिरों की देखरेख के लिए नियुक्त करना बेतुका है।

फिर भी, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में यही हो रहा है, जहाँ कम्युनिस्ट सरकारें हिंदू मंदिरों का संचालन कर रही हैं और उनके प्रबंधन के लिए नियम बना रही हैं। इसके अलावा, हाल ही में कई भारतीय राज्यों में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली है, जहाँ प्रमुख हिंदू मंदिरों में प्रशासनिक पदों पर “गैर-हिंदुओं” की नियुक्ति की जा रही है।

उदाहरण के लिए, 2017 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने अपने करीबी सहयोगी, फिरहाद हकीम, जो एक मुस्लिम हैं, को हुगली जिले के 200 साल पुराने तारकेश्वर शिव मंदिर के लिए नवगठित तारकेश्वर विकास बोर्ड (TDB) का अध्यक्ष नियुक्त किया। सरकार ने यह कहकर इस नियुक्ति को उचित ठहराने की कोशिश की कि हकीम को मंदिर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है, न कि तारकेश्वर मंदिर ट्रस्ट का।[8]

इस निर्णय का तथाकथित औचित्य यह था कि मंदिर बोर्ड केवल विकास संबंधी पहलुओं, जैसे कि बुनियादी ढांचे का विकास और दैनिक रखरखाव, को संभालता है, न कि धार्मिक मामलों को। लेकिन जब धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन की बात आती है, तो धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक कार्यों के बीच का यह विभाजन बिल्कुल अतार्किक और मनमाना है। चूँकि यह हिंदू ही हैं जो मंदिर प्रशासन को भूमि और धन दान करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से उम्मीद करते हैं कि उनके दान का उपयोग हिंदू समुदाय के कल्याण के लिए किया जाएगा, न कि “धर्मनिरपेक्ष” विकास गतिविधियों के लिए। गैर-हिंदुओं को मंदिर प्रशासन के प्रमुख के रूप में नियुक्त करना, भक्तों द्वारा किए गए दान के मूल उद्देश्य को ही विफल कर देता है।

हिंदू कार्यकर्ताओं और समुदाय के दबाव के कारण, फिरहाद हकीम को अंततः तारकेश्वर विकास प्राधिकरण से हटा दिया गया। यह सिर्फ़ एक उदाहरण है। कई राज्य सरकारें, अपने आप को “धर्मनिरपेक्ष” दिखाने के प्रयास में, देश भर के मंदिर प्रशासन बोर्डों में गैर-हिंदुओं को नियुक्त कर रही हैं। यह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण भारतीय राजनीति का एक प्रमुख पहलू बन गया है, जो लगभग सभी राजनीतिक दलों को प्रभावित करता है।

हिन्दू मंदिरों से दान राशि वितरण के अधिकारों को छीना जाना

यह विडंबना है कि हिंदू उदारता से विभिन्न धर्मार्थ संस्थाओं, जिनमें ईसाई संगठनों द्वारा संचालित संस्थाएँ भी शामिल हैं, को दान देते हैं, लेकिन उन्हें अपने समुदाय के सामाजिक कल्याण में सीधे सहयोग करने का अधिकार नहीं है।

हिंदू मंदिरों के पास इतनी धन-संपत्ति है कि इसके सही इस्तेमाल से समाज के हाशिये पर जीवन यापन कर रहे हिंदुओं का जीवन पूरी तरह से बदला जा सकता है। मंदिर प्रबंधन बोर्ड हिंदू समुदाय के लिए स्कूल, अस्पताल, और अन्य सेवाएँ स्थापित कर सकते हैं। लेकिन चूँकि मंदिर प्रशासन को सरकार द्वारा नियुक्त धर्मनिरपेक्ष समितियाँ नियंत्रित करती हैं, इसलिए भक्तों द्वारा दी गई दान-दक्षिणा अक्सर “धर्मनिरपेक्ष” परियोजनाओं में खर्च हो जाती है। कभी-कभी, इन निधियों का उपयोग कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा हिंदू विरोधी गतिविधियों का समर्थन करने के लिए भी किया जाता है। संक्षेप में, हिंदुओं से उनकी भक्ति के लिए एक प्रकार का कर लिया जा रहा है, जो स्वतंत्र भारत में ‘जज़िया’ का एक रूप बन गया है!

मंदिर पारंपरिक रूप से गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए एक महत्वपूर्ण आश्रय रहे हैं, जहाँ नियमित रूप से सामुदायिक भोज (भंडारे) आयोजित होते हैं। इन भंडारों में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी वर्ग या जाति से संबंध रखता हो, सम्मिलित हो सकता है। ये सामूहिक भोज किसी भी प्रकार के भेदभाव से परे होते हैं। लेकिन दुख की बात है कि मंदिरों के इस सामाजिक कल्याण कार्य को धर्मनिरपेक्ष सरकार द्वारा समाप्त किया जा रहा है। प्रमुख मंदिरों के पास अब यह स्वायत्तता नहीं रही कि वे अपने धन का उपयोग कैसे करें। परिणामस्वरूप मंदिरों द्वारा उत्पन्न धन, जो तीर्थयात्रियों और पुजारियों के परिवारों की भलाई के लिए इस्तेमाल होना चाहिए था, सीधे सरकारी खजाने में चला जाता है।

यह एक विचित्र विडंबना है कि जहाँ सरकार मुसलमानों और ईसाइयों को उनके धार्मिक संस्थानों के माध्यम से स्वतंत्र रूप से धर्मार्थ गतिविधियों का प्रबंधन करने की अनुमति देती है, वहीं हिंदू मंदिरों के संदर्भ में यह अपना दृष्टिकोण बदल लेती है। हिंदू धार्मिक संस्थानों के मामले में, सरकार और प्रशासन इस बात पर जोर देते हैं कि मंदिरों के धन का उपयोग “सबकी भलाई” के लिए किया जाना चाहिए। यही “बहुमत” का तमगा हिंदू समुदाय के लिए बोझ बन गया है,

हिंदू परंपराओं का पतन

हिंदू मंदिर पारंपरिक रूप से भारतीय संस्कृति के समृद्ध भंडार रहे हैं, जो हिन्दू शासकों के तहत संगीत, नृत्य, कला, और शिल्प जैसी भारतीय कलाओं को बढ़ावा देते थे। मंदिर उत्सव, जो इस सांस्कृतिक तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं, अब धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बदलते जा रहे हैं, जिससे कई समृद्ध परंपराएँ लुप्त होने की कगार पर पहुँच गई हैं।

सुप्रीम कोर्ट के वकील और लेखक साई दीपक का मानना है कि मंदिर प्रबंधन में राज्य के हस्तक्षेप से मंदिर-आधारित व्यवसायों में गिरावट आ रही है। वह देशी योद्धा परंपराओं (Marshal arts) का उदाहरण देते हैं, जो मंदिर संरक्षण पर निर्भर होने के कारण लगभग विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा, अखाड़ा प्रणाली, जो इन परंपराओं का समर्थन करती थी, अब संकट में है। साई दीपक आगे कहते हैं कि सरकार इन परंपराओं को बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती, क्योंकि वह उन्हें आर्थिक लाभ के स्रोत के रूप में नहीं देखती है।

साई दीपक ने हिंदुओं की दुविधा को सही संदर्भ में प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार, हिंदुओं के पास अब अपनी संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण और प्रचार-प्रसार का कोई रास्ता नहीं बचा है, क्योंकि सरकार ने हिंदू चेतना और सांस्कृतिक पहचान के सबसे महत्वपूर्ण ऊर्जा केंद्रों, अर्थात् मंदिरों, पर कब्जा कर लिया है।

एक संस्था जो शायद यह भूमिका निभा सकती है और जिसके पास भूमिका निभाने और इस विशेष शून्य को भरने के लिए संसाधन हैं, वह है मंदिर। 1959 और 2015 के बीच, तमिलनाडु राज्य ने मंदिरों से संबंधित भूमि की संख्या या भूमि की मात्रा को अलग कर दिया है, जो बिना किसी कारण के, बिना उचित दस्तावेज के अलग कर दी गई है। कल्पना कीजिए कि अगर इन सभी जमीनों का मंदिर द्वारा अच्छे उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जाए, बाज़ार  मूल्य पर पट्टे पर दिया जाए और उससे प्राप्त आय का उपयोग हिंदू बच्चों को शिक्षित करने के लिए किया जाए और आप अपने शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से हिंदू परंपराओं को जीवित रखने के लिए संसाधनों का उपयोग करें, तो हम एक ही बार में इतने सारे उद्देश्य प्राप्त कर सकते हैं। (जे. साई दीपक)[9]

अगर हिंदू मंदिरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाए, तो वे हिंदू संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे वैदिक पाठशालाएँ (विद्यालय) स्थापित कर सकते हैं, संस्कृत भाषा के पाठ्यक्रम चला सकते हैं, और वेदों और उपनिषदों पर ध्यान केंद्रित करते हुए हिंदू शास्त्रों की मूल बातें सिखा सकते हैं। इसके अलावा, हिंदू धर्म से संबंधित मुद्दों पर चर्चाएँ और विचार मंच आयोजित किए जा सकते हैं। संभावनाएँ अनंत हैं।

सच तो यह है कि भारत में हिंदू मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण केवल सरकारी खजाने को भरने तक सीमित नहीं है। इसका असली उद्देश्य समुदाय के सामूहिक स्थानों को नष्ट करना है ताकि हिंदुओं को सशक्त सामूहिक सांस्कृतिक पहचान बनाने से रोका जा सके। मंदिर तंत्र के विनाश ने कई हिंदू भक्ति-नृत्य और कला रूपों के धर्मनिरपेक्षीकरण को भी जन्म दिया है, जो पारंपरिक रूप से मंदिरों के भीतर पनपते थे। भरतनाट्यम और ओडिसी जैसे शास्त्रीय भारतीय नृत्य रूपों की उत्पत्ति मंदिरों में हुई थी, लेकिन अब इन रूपों के हिंदू भक्ति पहलुओं को बहुत कम महत्व दिया जाता है, जिससे ये नृत्य केवल सांस्कृतिक मनोरंजन बनकर रह गए हैं। इस बदलाव ने इन कला रूपों के गहरे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व को समाप्त कर दिया है।

हिंदू परंपरा के अद्वितीय धार्मिक नृत्य रूपों को साधना (भक्ति) के सर्वोच्च कार्य के रूप में माना जाता है। पुराणों और महाकाव्यों के विषयों से प्रेरित ये नृत्य कलाकार और दर्शक दोनों को अपनी इंद्रियों से परे जाने का अवसर प्रदान करते हैं। हालाँकि, आधुनिक समय में हिंदू धर्म की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को जानबूझकर अलग-थलग कर दिया गया है। हिंदू धर्म को अब अक्सर केवल निजी पूजा या सार्वजनिक मंदिर अनुष्ठानों तक सीमित कर दिया गया है। हमारी धार्मिक कल्पना की यह संकीर्णता योग, ध्यान, कला, और नृत्य रूपों सहित पूजा के अन्य तरीकों के निरंतर धर्मनिरपेक्षीकरण की ओर ले जाती है, जिससे उनका आध्यात्मिक महत्व खो जाता है।[10]

हिंदू विरोधी आख्यान को कायम रखना

धार्मिक संस्थाएँ आदर्श रूप से उन समुदायों के लिए आख्यान को आकार देती हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करती हैं। हालाँकि, हिंदुओं के परिपेक्ष्य में, यह अधिकार उनसे छीन लिया गया है, और इसके बजाय सरकार ने आख्यान को स्थापित किया है। साई दीपक बताते हैं कि दक्षिण भारत में लगातार कम्युनिस्ट सरकारों ने हिंदू धार्मिक संस्थाओं को नियंत्रित किया है और इस आख्यान को कायम रखा है कि मंदिर केवल उच्च जातियों के लिए हैं और तथाकथित “निम्न जातियों” के साथ भेदभाव करते हैं।

दक्षिण में, 1917 से ही आत्मसम्मान आंदोलन, न्याय पार्टी आंदोलन या द्रविड़ आंदोलन से शुरू होने वाले राजनीतिक आंदोलनों के चलते, अच्छे या बुरे के लिए, मंदिर को एक जाति, एक विशेष जाति की संस्था के रूप में माना जाता रहा है। इसे ब्राह्मण की संस्था के रूप में चित्रित किया गया है। यह आंतरिक रूप से ब्राह्मणवाद से जुड़ा हुआ है और शायद कुछ औचित्य के साथ क्योंकि एक निश्चित जाति के सदस्यों को इन मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देने की प्रथा थी। ऐसा हुआ था। इसलिए, सरकार के लिए यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना महत्वपूर्ण था कि मंदिर सभी के लिए खुले हों।

चाहे जो भी हो, मंदिर का एक खास जाति से जुड़ाव ही मुख्य कारण है कि शायद दूसरों को वैसी ही पीड़ा या चिंता न हो। एक संस्था के रूप में मंदिर पर कई दिशाओं से हमला हो रहा है। इसलिए, इसमें जातिगत कारक भी भूमिका निभाता है। लेकिन फिर मंदिरों के इतिहास के बारे में मेरी समझ यही रही है कि हर मंदिर हमेशा किसी न किसी खास समुदाय का रहा है। जबकि हर किसी के लिए एक खास मंदिर में प्रवेश करना खुला था, किसी खास मंदिर का स्वामित्व या किसी खास मंदिर का प्रशासन हमेशा एक खास संप्रदाय के पास रहा है, जरूरी नहीं कि हमेशा ब्राह्मण ही रहा हो[11]

इस प्रकार, हिंदू विरोधी तंत्र ने हिंदू मंदिरों के इतिहास को विकृत करने में सफलता पाई है, यह प्रचारित करते हुए कि ये मंदिर उच्च जाति के ब्राह्मणवादी विशेषाधिकार के गढ़ हैं। मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण इस हिंदू विरोधी कथा को और भी मजबूत कर रहा है। जबकि चर्च और मस्जिदें ईसाइयों और मुसलमानों के लिए धार्मिक पहचान के सामूहिक केंद्रबिंदु के रूप में देखी जाती हैं, मंदिरों को केवल उच्च जाति के आधिपत्य के स्थल के रूप में चित्रित किया जाता है।

इस ज़हरीले विमर्श के दुष्परिणाम अब स्पष्ट हो रहे हैं। सरकार इसे और अधिक हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण स्थापित करने के बहाने के रूप में उपयोग कर रही है, जबकि मीडिया सदियों पुरानी मंदिर प्रथाओं को संदर्भ से बाहर ले जाकर, उन्हें मिशनरी गुट द्वारा प्रचारित जाति कथा में फिट कर, उनका बेहद नकारात्मक और वीभत्स चित्रण कर रहा है।

दूसरी ओर, सरकार या मीडिया द्वारा अन्य धार्मिक पूजा स्थलों की परंपराओं में हस्तक्षेप करने का कोई उदाहरण नहीं मिलता। मस्जिदों और चर्चों में भी कई ऐसे नियम हैं जिन्हें आधुनिक मानकों के अनुसार “महिला विरोधी” या “अत्यधिक प्रतिगामी” माना जा सकता है। फिर भी, इन भेदभावपूर्ण प्रथाओं पर सरकार कोई सवाल नहीं उठाती। इससे प्रशासन के दोहरे मापदंडों का स्पष्ट पता चलता है, जो हिंदुओं को अपने धर्म से जुड़ी गतिविधियाँ चलाने के लिए उस प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता नहीं देते, जैसी अन्य धर्मों को प्रदान की जाती है।

निष्कर्ष

हिंदू मंदिरों पर लगातार सरकारी नियंत्रण हिंदू धर्म और सभ्यता की नींव को कमजोर कर रहा है, जिससे बड़े पैमाने पर हिंदुओं के दूसरे धर्मों में धर्मांतरण का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।

भारत में ईसाई धर्मांतरण उद्योग एक कॉर्पोरेट तंत्र की तरह काम करता है, जो विशाल धन और मजबूत बुनियादी ढांचे से लैस है, जिससे वे सबसे दूरदराज के क्षेत्रों तक भी पहुँच सकते हैं। कई हाशिए पर पड़े हिंदू, धर्मांतरण माफिया के शिकार हो जाते हैं, क्योंकि मिशनरी बेहतर जीवन का वादा करते हैं और अक्सर उसे पूरा भी करते हैं।

कौन सा गरीब परिवार अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसरों की इच्छा नहीं रखेगा, भले ही इसके लिए धर्मांतरण करना पड़े? इस तरह कई बदकिस्मत हिंदू धर्मांतरण के इस खेल में फंस जाते हैं। पारंपरिक रूप से मंदिरों के माध्यम से बनाए गए हिंदू धर्मार्थ तंत्र के व्यवस्थित विनाश ने भारत में हिंदू समाज के हाशिये पर जीवन यापन करने वाले सदस्यों को धर्मांतरण के गर्त में धकेल दिया है।

यदि हिंदू धार्मिक संस्थानों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाए, तो समुदाय हिंदू संस्कृति और सभ्यता को पुनर्जीवित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है, जिससे विभिन्न रूपों में हिंदू समाज की प्रगति और विकास का समर्थन हो सकेगा। यह स्वायत्तता उन पहलों को साकार करने की अनुमति देगी जो सीधे हिंदू समुदाय को लाभान्वित करेंगी, इसकी ताकत और लचीलापन बहाल करेंगी।

संदर्भ

[1] Article 26: Freedom to manage religious affairs – Constitution of India; https://www.constitutionofindia.net/articles/article-26-freedom-to-manage-religious-affairs/

[2] Prof RV on who should manage India’s temples – YouTube ;  https://www.youtube.com/watch?v=hBV4rPOm3LE&t=7s

[3] Why India’s temples must be freed from government control – Firstpost;  https://www.firstpost.com/india/why-indias-temples-must-be-freed-from-government-control-9460381.html

[4] Ibid.

[5] Free Temples: Government control of Hindu temples is a violation of the Constitution; https://organiser.org/2023/08/29/192780/bharat/free-temples-government-control-of-hindu-temples-is-violation-of-constitution/

[6] Temples must be liberated from government control – The Sunday Guardian Live; https://sundayguardianlive.com/opinion/temples-must-liberated-government-control

[7] Free Hindu Temples From Govt Control – YouTube;  https://www.youtube.com/watch?v=lua5F0T3m70&t=2s

[8] Letting non-Hindus run Hindu temples a mockery of secularism’ – The Sunday Guardian Live; https://sundayguardianlive.com/news/letting-non-hindus-run-hindu-temples-mockery-secularism

[9] Ibid.

[10] he Secularization of Hindu dance and art forms – Tattva Heritage;  https://tattvaheritage.org/the-secularization-of-hindu-dance-and-art-forms-and-the-role-of-hindu-philanthropy/

[11] Free Our Temples – J Sai Deepak – #IndicTalks – YouTube; https://www.youtube.com/watch?v=BZ7XdcMFGLI

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri

Rati Agnihotri is an independent journalist and writer currently based in Dehradun (Uttarakhand). Rati has extensive experience in broadcast journalism, having worked as a Correspondent for Xinhua Media for 8 years. She has also worked across radio and digital media and was a Fellow with Radio Deutsche Welle in Bonn. Rati regularly contributes articles to various newspapers, journals and magazines. Her articles have been recently published in "Firstpost", "The Sunday Guardian", " Organizer", OpIndia", "Hindupost", "Garhwal Post", "Sanatan Prabhat", etc.Rati writes extensively on issues concerning politics, geopolitics, Hindu Dharma, culture, society, etc. The points of intersection between geopolitics and culture are of special interest to her. A lot of her work explores issues concerning Bharat's civilizational and cultural ethos from a global perspective.She obtained her master’s degree in International Journalism from the University of Leeds, UK and a BA (Hons) English Literature from Miranda House, Delhi University. Rati is also a bilingual poet (English and Hindi) with two collections of English poetry to her credit. Her first poetry collection "The Sunset Sonata" has been published by Sahitya Akademi, India's National Academy of Letters. Her second poetry book "I'd like a bit of the Moon" has been published by Red River.

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