- शरिया कानून लैंगिक असमानता बढ़ाते हैं। खास तौर पर निकाह, तलाक, विरासत और हिरासत जैसे मामलों में तो हमेशा महिलाओं को ही मुसीबत झेलनी पड़ती हैं।
- शरिया में ट्रिपल तलाक, बहुविवाह और महिला जननांग विकृति जैसी अमानवीय प्रथाएं शामिल हैं, जो मध्ययुगीन रीति-रिवाजों और इंसानों द्वारा बनाए हदीसों से निकलते हैं।
- शरिया कानूनों का क्रियान्वयन अक्सर आधुनिक मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन करता है। इनके आधार पर मुस्लिम महिलाओं को प्राय: उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है।
- शरिया कानूनों का इस्तेमाल महिलाओं की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए किया जाता है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पहनावे पर नियंत्रण और धर्म छोड़ने पर सजा आदि शामिल हैं।
- महिलाओं के जीवन पर नकारात्मक रूप से प्रभाव होने के बाद भी, शरिया कानून सदियों से नहीं बदला है। आज के समय के मूल्यों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों से इसका कोई मेल नहीं है। इसमें आधुनिक समय के अनुकूल परिवर्तन करने की जरूरत है।
मैं एक कश्मीरी मुस्लिम महिला हूँ, और मैं शरिया कानूनों की शिकार हूँ। मेरी मां और मेरी बहन भी इस क़ानून से पीड़ित रही हैं।
आम मुसलमानों का मानना है कि शरिया कानून न्यायसंगत हैं[1] और मुस्लिम समुदाय को सुरक्षा प्रदान करते हैं। हालाँकि, कुछ पढ़े-लिखे मुसलमान शरिया को तर्कसंगत न होने की भी बात करते रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि इसकी ज्यादातर बातें हदीस की सुनी-सुनाई बातों से ली गयी है। ऐसे लोग इस ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने का प्रयास करते हैं। हम यह भले ही मान लें कि शरिया कानून, खलीफा अब्बास के शासन के बाद पुरुष उलेमा द्वारा विकसित और संहिताबद्ध किए गए है। हम यह भी मान सकते हैं कि खलीफाओं द्वारा इसे हमेशा समर्थन मिला और अक्षरशः इसका पालन किया जाता रहा है। लेकिन, पुरुष मुस्लिम रिश्तेदार अक्सर अपने लालच और ताकत के लिए इन कानूनों में हेरफेर करने के तरीके खोज लेते हैं। पैगंबर के निर्देशों का कथित रूप से पालन करने के बावजूद, वे उन्हीं सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, जिनका वे पालन करने का दावा करते हैं।
तीन तलाक (तीन बार तलाक शब्द बोल देना) सालों पुरानी शादी को तोड़ देता है। मेरी मां के मामले में ऐसा ही हुआ था। यह बहुत बड़ा अन्याय था। उस समय उनकी दो छोटी बेटियाँ थीं। उनके पास पैसा कमाने कोई साधन नहीं था। तलाक का कारण तो और भी चौंकाने वाला था। मेरे दादा ने मेरी बहन से छेड़छाड़ करने की कोशिश की थी। तब मेरी मां ने विरोध करने की हिम्मत दिखाई। जवाब में मेरे पिता ने उन्हें तुरंत तीन तलाक देकर अपने परिवार से निकाल दिया। उन्हें अपने चार भाइयों की दया पर नाना के घर में शरण लेनी पड़ी। नाना ने हमारी ज़िम्मेदारी संभाली। उत्पीड़न का सिलसिला यहीं नहीं थमा। हमारी अनौपचारिक मोहल्ला समिति, कश्मीर की शरिया अदालतों ने मेरी मां को सार्वजनिक रूप से परिवार के अंदरूनी मामलों को बाहर उछालने का दोषी ठहराया। अदालत ने भी मेरी मां से अपने आरोपों को वापस लेने को कहा और फिर से मेरे पिता के साथ सुलह करने को कहा। पर मेरे मामा अपनी बात पर अड़े रहे। हम दोनों बहनें बीस साल तक बिना अब्बा के गुजारा भत्ता के पली। हमने मेहनत की, पढाई की, और मेरी एक बहन डॉक्टर बनी और मैं एक शिक्षाविद् और लेखक। इसके बाद से जा कर हमारी मां की दुनिया फिर से ठीक होनी शुरू हो गयी।
लेकिन अन्याय यहीं खत्म नहीं हुआ। हम बहनें बीस साल बाद अपने माता-पिता को फिर से मिलाने में सफल रहे। मेरे पिता स्टेज 4 ल्यूकेमिया से ग्रसित हो गए थे। हमने उनकी देखभाल की, लेकिन अंततः उनकी मृत्यु हो गयी। शरिया कानूनों का एक और सच हमारे सामने आया। हमारे दादा पक्ष के पुरुष रिश्तेदारों ने हमें हमारे पिता की विरासत से वंचित करने के लिए शरिया कानूनों का इस्तेमाल किया। मेरे पति अर्शिद मलिक की 40 साल की उम्र में हृदयाघात से मौत हो गयी। वहां भी शरिया कानूनों ने हमें और प्रताड़ित किया। शरिया कानूनों के अनुसार (भारतीय उपमहाद्वीप हनफ़ी नियमों का पालन करता है), मैं अपने पति की विरासत से अपने आप ही वंचित हो गई। साथ ही मेरा नाबालिग बेटा भी पारिवारिक संपत्ति से वंचित रहा, क्योंकि उस समय मेरे ससुर जीवित थे।
आज भी मैं न्याय की प्रतीक्षा कर रही हूँ क्योंकि मेरा इकलौता बच्चा बड़ा हो रहा है, और वह यह समझने लगा है कि कैसे न केवल शरिया कानून बल्कि कश्मीर और पूरे भारत की इस्लामी संस्कृति मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करती है। उनके शरीर, उनके दिमाग, उनकी आत्मा का उत्पीड़न करती है।
नास्तिक मुसलमानों के लिए धर्मनिरपेक्ष अधिकारों की मांग
हाल ही में मैंने एक खबर पढ़ी’ कि केरल की एक मुस्लिम महिला साफिया पीएम ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका[2] दायर की है। साफिया मुस्लिम परिवार में पैदा हुई थी, पर इस्लाम को नहीं माना । उसने अपनी याचिका में उन लोगों पर शरिया कानून थोपने को चुनौती दी गई है, जो इस्लाम में पैदा हुए हैं लेकिन खुद को नास्तिक मानते हैं। इस मामले की सुनवाई 12 जुलाई, 2024 को होनी है।
साफिया ने मांग की है कि नास्तिक मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष कानूनों, विशेष रूप से 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत, बिना वसीयत और वसीयतनामा उत्तराधिकार के मामलों में शासित होना चाहिए। उसका तर्क है कि जो व्यक्ति मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित नहीं होना चाहते हैं, उनके पास देश के धर्मनिरपेक्ष कानून द्वारा शासित होने का विकल्प होना चाहिए। यह अपनी तरह का पहला मामला है। साफिया न केवल अपने और अपने बच्चे के लिए लड़ रही है, बल्कि मेरी बहन, मेरी मां और मेरे जैसी महिलाओं के लिए भी लड़ रही है। इस निर्णय का प्रभाव उन पुरुषों और महिलाओं पर भी होगा, जिन्होंने इस्लाम को छोड़ दिया है, या जो उससे असहमत हैं।
साफिया अनजाने में ही उन मुस्लिम महिलाओं के लिए लड़ रही हैं, जिनके साथ भेदभाव किया जाता है और जिनका उन्हें स्त्री-विरोधी शरिया कानूनों द्वारा उत्पीड़न किया जाता है। हालांकि, असली सवाल यह है कि समानता का दावा करने वाला एक धर्म अपने मूल संदेश से इतना अधिक रास्ता कैसे भटक गया? इस्लाम के विद्वानों का कहना है कि कुरान में ‘शरिया’ शब्द केवल तीन बार आता है। यह इस्लामी कानून के ढांचे के लिए है। कुरान में रोजाना के जीवन के लिए दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं। इसलिए आज हमारे पास जो शरिया कानून हैं, वे पैगंबर की मृत्यु के दो सौ साल बाद संकलित किए गए थे। ये कानून कुरान, पैगंबर के उदाहरण, आम सहमति, तर्क, पुराने कानून, स्थानीय रीति-रिवाज और सार्वजनिक हित सहित दस अलग-अलग स्रोतों से लिए गए थे।[3]
शरिया के तहत विवाह, तलाक और विरासत
शरिया कानूनों की पारंपरिक रूप से इस्लाम के विद्वानों द्वारा व्याख्या की जाती है। ये मुख्य रूप से मुसलमानों पर लागू होते हैं। ये विवाह, तलाक, विरासत और आपराधिक मामलों को देखते हैं और राज्य की अदालतों के साथ मिलकर शरिया द्वारा प्रशासित होते हैं। विरासत के लिए शरिया कानून लिंग और पारिवारिक संबंधों के आधार पर ख़ास नियमों का पालन करते हैं और इस्लामी दिशा-निर्देशों के अनुसार उत्तराधिकारियों के बीच संपत्ति का वितरण किया जाता हैं। शरिया अदालतें अक्सर धर्मनिरपेक्ष राज्य की अदालतों के समानांतर चलती हैं। इससे बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता के लिए चुनौतियाँ पैदा होती हैं। शरिया कानूनों की सीधी आलोचना आमतौर पर मानवाधिकारों, लैंगिक समानता और आधुनिक सामाजिक मानदंडों के अनुकूल न होने के कारण की जाती रही है, खासकर अपराध के लिए कठोर दंड के संबंध में।
शरिया कानून विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने और बच्चों की कस्टडी के संबंध में लैंगिक असमानताओं को बनाए रखते हैं। मध्ययुगीन काल की सांस्कृतिक और सामाजिक धारणाओं को मानव निर्मित हदीसों से जोड़कर देखें, तो हमें महिला जननांग विकृति, अनिवार्य पर्दा, आत्म सम्मान के लिया हत्या, बाल विवाह और कई अन्य कुप्रथाएँ देखने को मिलती है। यहाँ तक कि इस्लाम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रतिबंधित है। अगर कोई भी व्यक्ति सीमा का उल्लंघन करता है, तो उस पर सेंसरशिप लागू होती है, चाहे वह मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम।
इस्लाम मे, जो अल्लाह को नहीं मानता, उससे नफरत की जाती है और विधर्मी कहा जाता है। नास्तिकता को बर्दाश्त नहीं किया जाता है। इस्लाम छोड़ने वालों को मार देने या अपंग बना देने का प्रावधान है। किसी भी माध्यम से पैगंबर की आलोचना करने पर अक्सर मौत की धमकियाँ दी जाती हैं, जैसे कि चार्ली हेब्दो हत्याकांड और फिल्म निर्देशक थियो वैन गॉग को चाकू मारने की घटना। शरिया कानूनों को अक्सर लोकतंत्र और आधुनिकता का विरोधी माना जाता है। इसे कठोर और पुराना माना जाता है। पारंपरिक इस्लामी सिद्धांतों और आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच इस अंतर को दूर करने के लिए एक इस्लामी पुनर्जागरण की आवश्यकता है। शरिया के कई कानून मानव निर्मित हैं और राष्ट्रीय कानूनों के साथ इनका जरा भी तालमेल नहीं है। विद्वानों को इस पर बहस करनी चाहिए।
हसन महमूद की पुस्तक ‘‘How Shari-ism Hijacked Islam: The Problem, Prognosis, and Prescription’ ऐसा ही एक प्रभावशाली प्रयास है, जो सबसे प्रामाणिक इस्लामी स्रोतों से शरिया की गहराई से जांच करता है। वे अपने दावे का समर्थन करने के लिए इस बात का विश्लेषण करते है कि मानव निर्मित शरिया कानून मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है।[4] उनकी पुस्तक शरिया कानून के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती है, जिसमें इसकी परिभाषा, स्रोत और आंतरिक विरोधाभास शामिल हैं। इसमें तीन तलाक, धर्म छोड़ने वाले को मारना, बलात्कार पीड़ितों को दंडित करना, इस्लाम में महिलाओं के अधिकार, महिला जननांग विकृति, बहुविवाह, पत्नी की पिटाई और गुलामी जैसे मुद्दों पर भी चर्चा की गई है।
इस्लामी कानून पर एक नया दृष्टिकोण
हाल ही में, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) ने कुरान की समकालीन व्याख्या[5] की आवश्यकता पर चर्चा की है। यह चर्चा उन्होंने 27 अप्रैल, 2021 को सरकारी स्वामित्व वाले रोटाना टीवी पर 90 मिनट के साक्षात्कार के दौरान की थी। उन्होंने संविधान और कानून को कुरान पर केंद्रित करने और कई हदीसों के प्रभाव को कम करने का सुझाव दिया। क्राउन प्रिंस ने इस्लामी कानूनों को लागू करने में संयम पर भी जोर दिया और वहाबी विचारधारा को चुनौती दी। एमबीएस वहाबवाद से हट कर इस्लाम में सुधार की वकालत कर रहे हैं। उनके प्रस्तावित सुधारों में विभिन्न अपराधों के लिए दंड में बदलाव शामिल हैं। यह उन्हें उन मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ खड़ा करता है जिन्होंने अपने विचारों के लिए मौत का सामना करने के बावजूद इस्लाम को आधुनिक बनाने की कोशिश की है।
अगर कुरान के नियमों और हदीसों के पालन पर जोर देने और कम प्रसिद्ध हदीसों की विश्वसनीयता की जांच की जाए, तो केवल 10% हदीसों को ही वैध माना जाएगा, जिनका कुरान से कुछ संबंध है। परिणामस्वरूप, धर्म छोड़ने वालों और समलैंगिकता से संबंधित कानूनों के साथ-साथ पत्थर मारने और अंग विच्छेदन जैसी कुछ कठोर सज़ाओं को समाप्त किया जा सकता है। यह वहाबी विचारधारा से अलग होने का संकेत देता है, जो पारंपरिक विचारधाराओं और धार्मिक विद्वानों की तुलना में इस्लामी ग्रंथों का पक्षधर है। और सबसे बड़ी बात ये है कि ये बयान वो दे रहे हैं जो मक्का और मदीना जैसे दो पवित्र शहरों के संरक्षक हैं, और जिनका रुतबा ईसाई धर्म में पोप के समान हैं।
हालांकि कुछ लोग ये भी कह सकते है कि सऊदी अरब कुरानवाद को चुन रहा है। परंतु एक विचारधारा जो हदीसों के अधिकार को खारिज करती है, जो समय, ज्ञान और संस्कृति के आधार पर फिर से व्याख्या का समर्थन करती है, ऐसा दृष्टिकोण इस्लाम को अधिक प्रासंगिक और सांस्कृतिक रूप से एकीकृत बनाएगी। हालांकि भारत में कुछ समूहों द्वारा वहाबवाद, सलाफीवाद और देवबंदी मॉडल जैसे कट्टरपंथी राजनीतिक इस्लाम को चुनौती दे सकता है, जिससे भारतीय मुसलमानों को भारतीय उपमहाद्वीप में सामंजस्य स्थापित करने में मदद कर सकता है।
उलेमा और प्रशासन की साठगाँठ
सैन डिएगो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अहमत टी कुरु ने अपनी किताब ‘‘Islam, Authoritarianism, and Underdevelopment: A Global and Historical Comparison’ [6] में कहा है कि मुस्लिम दुनिया की समस्याएं ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई। तभी “उलेमा-राज्य गठजोड़” शुरू हुआ था। यानी, मैं तुम्हारी पीठ खुजलाऊ, तुम मेरी खुजलाओ गठजोड़ जैसा। उलेमा (इस्लामी विद्वानों का समूह) और राज्य के बीच गठजोड़ की यही विशेषता है। राज्य ने उलेमा को संरक्षण प्रदान किया, संसाधन और सुरक्षा प्रदान की, जबकि उलेमा ने बदले में धार्मिक मान्यता दे कर शासक अभिजात वर्ग के अधिकार को वैध बनाया। इस सहजीवी संबंध ने मध्ययुगीन इस्लामी दुनिया के राजनीतिक और धार्मिक ढांचे को मजबूत किया।
यह सहजीवी संबंध पुरुष-प्रधान था। इसने अंततः मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया और उन्हें पिंजरे में बंद कर दिया। मध्यकालीन समय में स्त्री-विरोध की नीयत के साथ, बहुत सी अफवाहों पर आधारित मानव निर्मित शरिया कानूनों का परिणाम आज हमारे सामने भारत के शरीयत अधिनियम 1937 के रूप में है। यह केवल चार पन्नों का दस्तावेज़ है, जिसे आज़ादी के सात दशकों के बाद भी कभी नहीं बदला या सुधारा नहीं गया। उलेमा-राज्य गठजोड़ का मध्ययुगीन इस्लामी समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। इसने धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के अधिकार को मजबूत किया, मुस्लिम समुदाय के कानूनी, नैतिक और सामाजिक ताने-बाने को आकार दिया और इसे दैवीय दर्जा देकर इसके सुधार या परिवर्तन में बाधाएँ पैदा कीं।
हदीस ने मार्गदर्शन और शासन के स्रोत के रूप में काम किया। इसने सदियों तक रोज़मर्रा की ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया। उलेमा-राज्य गठजोड़ ने इस्लामी विद्वत्ता को गहराई से प्रभावित किया है, जो वर्जित विषयों, मानवतावादी होने के बजाय धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित शासन और पुराने पड़ चुके सामाजिक मानदंडों को नहीं छूती है। प्रोफेसर कुरु ने यह भी विस्तार से बताया कि इस गठजोड़ ने एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी वर्ग को उभरने से रोका। इस्लामी राज्य में पूंजीपति वर्ग को भी हाशिए पर धकेल दिया।
इस बीच, पश्चिमी यूरोप में पादरी और राज्य के अलग होने से विकास हुआ। प्रोफेसर कुरु ने हिंसक, लोकतंत्र विरोधी और प्रतिकुल विचारों को बढ़ावा दे कर मुस्लिम दुनिया में समस्याओं को बढ़ाने में उलेमा की भूमिका पर जोर दिया है। वह “उलेमा-राज्य गठजोड़” को प्रगति की राह में बाधा के रूप में देखते हैं क्योंकि उलेमा सत्तावादी शासन को वैध बनाते हैं, जो हिंसा और उत्पीड़न में योगदान देता है।
साफिया केस: इस्लामिक पुनर्जागरण के लिए आशा की किरण
साफिया का केस सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं है, बल्कि इस्लामिक पुनर्जागरण की आशा का प्रतीक भी है। शरिया कानूनों की फिर से जाँच करके इसे और अधिक समावेशी, समतावादी और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सकता है। चुनौती यह है कि इसकी शिक्षाएँ न सिर्फ़ कर्मकांडों को बढ़ावा दें, बल्कि हमारी मान्यताओं की परवाह किए बिना सभी व्यक्तियों के कल्याण और सम्मान को भी बढ़ावा दें। इस रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए साहस, विद्वत्तापूर्ण दृष्टि और मानवाधिकारों के प्रति संवेदना की ज़रूरत है। यदि ये मुहिम सफल हुई तो फिर यह एक ऐसा भविष्य बना सकती है, जहाँ इस्लामी सिद्धांत और समकालीन मूल्य सामंजस्यपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व में होंगे।
Citations
[1] The burden of reform and why we do it – SEDAA – Our Voices; http://www.sedaa.org/2017/10/the-burden-of-reform-and-why-we-do-it/
[2] Kerala Muslim woman is on a mission against Shariat Law. It’s a do-or-die inheritance battle (theprint.in); https://theprint.in/feature/kerala-muslim-woman-is-on-a-mission-against-shariat-law-its-a-do-or-die-inheritance-battle/2065026/
[3] Tarek Fatah, “Chasing the Mirage: The Tragic Illusion of an Islamic State,” (2008): p -249.
[4] Hasan Mahmud, “How Sharia-ism Hijacked Islam: The Problem, Prognosis, and Prescription” (2017)
[5] Saudi reforms are softening Islam’s role, but critics warn the kingdom will still take a hard line against dissent (theconversation.com); https://theconversation.com/saudi-reforms-are-softening-islams-role-but-critics-warn-the-kingdom-will-still-take-a-hard-line-against-dissent-210537
[6] Ahmet T. Kuru, “Islam, Authoritarianism, and Underdevelopment: A Global and Historical Comparison” (2019)