[संपादक: इस लेख का उद्देश्य केवल उन असाधारण समन्वित हमलों को उजागर करना है, जो वामपंथी मीडिया द्वारा विशेष राजनीतिक नेताओं और विचारधाराओं पर किए जाते हैं, अक्सर तथ्यों और पत्रकारिता नैतिकताओं को नजरअंदाज करते हुए। यह लेख मीडिया कवरेज में इस्तेमाल की जाने वाली विधियों और पैटर्न पर केंद्रित है, न कि उल्लेखित नेताओं के गुण-दोषों पर। इस विश्लेषण का उद्देश्य केवल व्यापक मीडिया पूर्वाग्रहों और उनके जन धारणा और लोकतांत्रिक विमर्श पर प्रभावों को उजागर करना है।]
- भारतीय और अमेरिकी राजनीतिक प्रक्रियाएं एक समन्वित अभियान का सामना कर रही हैं जिसमें मुकदमे, झूठी कथाएँ, और लगातार अपमान जनक कथानक शामिल हैं, जिनका उद्देश्य उनकी वैधता को कमजोर करना है।
- पश्चिमी देशों में भारतीय मूल के पत्रकारों को उन भारतीय राजनीतिक नेताओं के बारे में नकारात्मक कथाओं को बनाए रखने के प्रमुख किरदार के रूप में उजागर किया गया है, जो अक्सर भारत की छवि बिगड़ने के लिए हैं।
- वामपंथी सक्रियता पर शोध से पता चलता है कि कुछ कार्यकर्ता राजनीतिक आंदोलनों का उपयोग अपनी अहंकार-प्रेरित जरूरतों को पूरा करने के लिए करते हैं।
- वामपंथी मीडिया ऐसे नेताओं को, जिनका वे विरोध करते हैं, बदनाम करने के लिए एक नियमित रणनीति का पालन कर रहा है।
नेपोलियन बोनापार्ट का एक प्रसिद्ध उद्धरण है जो उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति के संदर्भ में कहा था: “रईस वर्ग बच सकता था अगर उन्होंने लेखन डेस्क को नियंत्रित करना सीख लिया होता।” यह कथन न केवल उनके समय की वास्तविकताओं को उजागर करता है, बल्कि वर्तमान दौर में भी मीडिया के प्रभाव पर गहराई से विचार करने को मजबूर करता है। नेपोलियन का मानना था कि रईस वर्ग को इसलिए गिलोटिन के नीचे आना पड़ा क्योंकि वे आम जनता को यह विश्वास दिलाने में असफल रहे कि उनका समाज में एक महत्वपूर्ण योगदान है। इसके विपरीत, उस समय का मीडिया जनता को यह यकीन दिलाने में सफल रहा कि राजशाही शासन न केवल बेकार है, बल्कि समाज के लिए हानिकारक भी है। यह बात आज भी उतनी ही सच है जितनी तब थी।
मीडिया का प्रभाव कोई नया विषय नहीं है, लेकिन इसका असली महत्व तब स्पष्ट होता है जब हम देखते हैं कि यह कैसे सरकारों को गिराने और सत्ता परिवर्तन में मुख्य भूमिका निभा सकता है। उदाहरण के लिए, वैश्विक मीडिया आउटलेट्स ने इराक में कथित रूप से मौजूद सामूहिक विनाश के हथियारों के मुद्दे पर झूठी और भड़काऊ रिपोर्टिंग की और एक विनाशकारी युद्ध को जन्म दिया। इस रिपोर्टिंग के परिणाम स्वरूप सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटका दिया गया, हालांकि बाद में यह साबित हो गया कि इस तरह के हथियार कभी इराक में थे ही नहीं। इसी तरह, लीबिया में नागरिकों की रक्षा के नाम पर किया गया शोर-शराबा वास्तव में मुअम्मर अल-गद्दाफी को सत्ता से हटाने के लिए चल रहे गुप्त शासन परिवर्तन मिशन का एक मुखौटा था[1]। इसने लीबिया को अनियंत्रित अराजकता में धकेल दिया, जिसका खामियाजा आज भी वह भुगत रहा है।
अब हाल ही में डोनाल्ड ट्रम्प पर हुए हत्या के प्रयास को देखिए। क्या यह घटना साबित नहीं करती कि एक दशक तक अमेरिकी मीडिया में उनके खिलाफ फैलाई गई अमानवीयता ने कुछ युवाओं को इतना कट्टरपंथी बना दिया है कि वे हिंसा के रास्ते पर उतर आए हैं? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मीडिया ने ट्रम्प को एक ऐसा खलनायक बना दिया है, जिसे मारने का विचार कुछ लोगों के मन में एक “लोकतांत्रिक आदर्श” के रूप में उभरा है। यह स्थिति बताती है कि जब मीडिया का उपयोग गलत उद्देश्यों के लिए किया जाता है, तो इसके परिणाम कितने खतरनाक हो सकते हैं।
आयान हिरसी अली इस घटना को ‘ट्रम्प डिरेन्जमेंट सिंड्रोम’ के रूप में बताती हैं। उनके अनुसार, यह “वह वातावरण है जो डोनाल्ड ट्रम्प के राजनीतिक दुश्मनों द्वारा बनाया और पोषित किया गया है।” यह वातावरण इतना विषाक्त है कि इसने अमेरिका को राजनीतिक रूप से ध्रुवीकृत कर दिया है, और देश को टूटने के कगार पर पहुंचा दिया है। आयान हिरसी अली के अनुसार, अमेरिका का उदारवादी राजनीतिक, सांस्कृतिक, और मीडिया अभिजात वर्ग ने कभी ट्रम्प की वैधता को राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार नहीं किया, और यही कारण है कि देश में यह स्थिति उत्पन्न हुई है।[2]
जब हम इस स्थिति पर और गहराई से विचार करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि डोनाल्ड ट्रम्प और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वैश्विक वामपंथी मीडिया के अभियानों में अद्भुत समानताएँ हैं। यदि हम ट्रम्प के मामले को देखे, तो भविष्यवाणी की जा सकती है कि यदि ट्रम्प फिर से चुने जाते हैं, तो मीडिया में उनके खिलाफ अभियान कैसा होगा। ट्रम्प पर 2024 में जो तीखे हमले किए जा रहे हैं, वे 2014 से प्रधानमंत्री मोदी पर पूरी तरह से आजमाए जा चुके हैं। यह समानताएँ इतनी स्पष्ट हैं कि किसी को यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि अमेरिकी वामपंथी मीडिया ने ये हथकंडे भारतीय वामपंथ से सीखे हैं, न कि इसके विपरीत।
यदि हम अमेरिकी टीवी पर प्राइम-टाइम न्यूज़ डिबेट्स पर नज़र डालें, तो हमें स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है कि ट्रम्प के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं, वही बातें राहुल गांधी, कांग्रेस पार्टी, और उनके वाम-उदारवादी सहयोगियों ने 2014 से भारत में कही हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिकी टीवी डिबेट्स में यह कहना आम है कि “अगर ट्रम्प एक चुनाव जीतते हैं… तो हमारा देश खत्म हो जाएगा, हमारा लोकतंत्र, हमारा संविधान खत्म हो जाएगा, यह आखिरी चुनाव होगा जो हम कभी करेंगे।“[3] यह शब्दशः वही बात है जो भारत में मोदी के खिलाफ कही जाती है।
मीडिया की इस भूमिका को समझना जरूरी है, क्योंकि ट्रम्प और मोदी के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों में और भी कई समानताएँ हैं। ट्रम्प को भी कई मुकदमों, झूठी मीडिया कहानियों, संदिग्ध जांच आयोगों, गंभीर अमानवीकरण और लगातार अपमान का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें हिटलर, फासिस्ट, नफरत फैलाने वाले, वर्चस्ववादी, और कट्टरपंथियों के रूप में चित्रित किया जा रहा है। इसी तरह, ट्रम्प के विरोधियों ने अपने समर्थकों को यह विश्वास दिलाया है कि उनके जीवन में जो कुछ भी गलत हो रहा है, वह ट्रम्प के कारण है, जिससे उनके दिमाग में उनके खिलाफ हिंसा को न्यायसंगत ठहराया गया है। इसके विपरीत, उनके विरोधियों के खिलाफ एक शब्द भी बोलना पाप माना जाता है।[4]
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इसी प्रकार के हमलों का सामना करना पड़ा है। 2004 में इशरत जहां हत्या की साजिश, 2008 के अहमदाबाद बम धमाके, 2013 के पटना रैली बम धमाके की कोशिश, 2018 के एल्गार परिषद – भीमा कोरेगांव साजिश, और 2022 में पंजाब फ्लाईओवर पर उनकी हत्या के प्रयास का उल्लेख किया जा सकता है। मोदी को बदनाम करने के लिए जो रणनीतियाँ अपनाई गईं, वे आज ट्रम्प के खिलाफ भी इस्तेमाल हो रही हैं।
झूठी खबरें और कथानक बनाने की बात करें, तो हमने देखा है कि कैसे वैश्विक वामपंथी मीडिया ने प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ अपने एकतरफा निंदा भरे रिपोर्टिंग के साथ भारत में विद्रोह भड़काने की कोशिश की। यह अभियान मई 2024 के आम चुनाव की पूर्व संध्या पर चरम पर था[5]। इसी तरह की तकनीकों का अब चल रहे अमेरिकी चुनाव अभियान में उपयोग किया जा रहा है। लाखों अमेरिकी नागरिक, जिन्होंने पहले ट्रम्प को वोट दिया था और फिर से उन्हें वोट दे सकते हैं, को यह बताया गया कि वे “राष्ट्र की नींव को खतरे में डाल रहे हैं।” उस भाषण के बाद के दो वर्षों में, इस बात पर जोर दिया गया कि ट्रम्प की चुनावी जीत अस्वीकार्य होगी। उनके खिलाफ कानून और मीडिया का अभियान तेज हो गया, जिसका उद्देश्य ट्रम्प को किसी भी अपराध का दोषी ठहराना और उन्हें अपराधी घोषित करना था, ताकि डेमोक्रेटिक जीत सुनिश्चित की जा सके।[6]
परिणामस्वरूप, न्यूयॉर्क की एक अदालत ने ट्रम्प को एक ऐसे मामले में सभी 34 आरोपों में दोषी पाया, जिसके बारे में कानूनी विशेषज्ञों का दावा है कि यह मामला किसी और के खिलाफ कभी नहीं लाया जाता, अगर वह व्यक्ति डोनाल्ड ट्रम्प नहीं होता।
यह स्थिति स्पष्ट रूप से बताती है कि कैसे वैश्विक वामपंथी मीडिया एक सुसंगत और केंद्रीयकृत रणनीति के तहत काम कर रहा है। यह लेख इस स्थिति की विषाक्त समानताओं को उजागर करने के लिए लिखा गया है, न कि किसी भी रूप में डोनाल्ड ट्रम्प या रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन करने के लिए। इसका उद्देश्य यह दिखाना है कि कैसे मीडिया का प्रभाव न केवल चुनावी प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण और हिंसा को भी भड़का सकता है। इसके साथ ही, यह लेख इस बात पर भी ध्यान केंद्रित करता है कि कैसे वैश्विक वामपंथी मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत और विश्वभर में भारतीयों के खिलाफ एक व्यापक और घृणित प्रचार चला रहा है, जिसका उद्देश्य समाज में भ्रम फैलाना और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करना है।
ब्राउन कुली और उनकी काली करतूतें
मोदी और ट्रम्प डिरेन्जमेंट सिंड्रोम के बीच कई समानताएँ होने के बावजूद, एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि मोदी-विरोधी कथाओं का अधिकांश हिस्सा पश्चिमी देशों में बसे भारतीय मूल के पत्रकारों द्वारा गढ़ा गया है। यह एक विशेष प्रकार की विडंबना है, जैसे कि ऐसोप की वह पुरानी कहानी जिसमें पेड़ और कुल्हाड़ी का जिक्र है। उस कहानी में एक आदमी जंगल में आता है और पेड़ों से अपनी कुल्हाड़ी के लिए एक हैंडल बनाने की विनती करता है। पेड़, उसकी गुजारिश को मानते हुए, उसे लकड़ी का हैंडल दे देते हैं। लेकिन जैसे ही वह आदमी अपनी कुल्हाड़ी के लिए नया हैंडल पाता है, वह उसी कुल्हाड़ी से उन पेड़ों को काटने लगता है जिन्होंने उसे वह हैंडल दिया था। मतलब ये कि जब आपका ही समुदाय दुश्मनों के हाथों में एक हथियार बन जाए, तो विनाश अवश्यंभावी होता है।
इसी प्रकार, वैश्विक वामपंथ को भारतीय मूल के ब्राउन कुलियों की लगातार जरूरत रहती है, ताकि वे भारत और भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ झूठी कहानियाँ गढ़ सकें और यह सुनिश्चित कर सकें कि यह काल्पनिक गढ़ा हुआ कार्य अंदर से उत्पन्न लगता है। हमने कई बार इन ब्राउन कुलियों की चापलूस रिपोर्टिंग की समीक्षा और तथ्य-जांच की है। यह लोग कभी भी अपने पश्चिमी मालिकों को खुश करने के लिए अपने ही विरासत को बदनाम करने से नहीं चूकते, सिर्फ इसलिए कि उन्हें अपने अस्तित्व को वैध ठहराने के लिए कुछ प्रशंसा के टुकड़े मिल सकें। लेकिन ‘मोदी डिरेन्जमेंट सिंड्रोम’ के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि ये संक्रमित पागल पत्रकार अब अपनी रिपोर्टिंग में इतने नीच स्तर पर पहुंच गए हैं कि वे वास्तव में अपने गोरे मालिकों की प्रतिष्ठा को भी गिरा रहे हैं, और इस प्रक्रिया में पूरी तरह से नीचे गिर चुके हैं।
वॉशिंगटन पोस्ट और उसके तथाकथित ‘टेक’ पत्रकार प्रण्शु वर्मा का उदाहरण लें। इस निम्नस्तरीय पत्रकार की टाइमलाइन की एक साधारण जांच से ही उसकी पूर्वाग्रहता स्पष्ट हो जाती है। वर्मा की तथाकथित रिपोर्टिंग भारत और भारतीयों की हर सकारात्मक चीज़ के खिलाफ निरंतर विलाप की श्रृंखला है। हालांकि, वॉशिंगटन पोस्ट की भारत के खिलाफ कवरेज सब अच्छी तरह से जानते हैं, और अक्सर नजर अंदाज करते हैं[7], लेकिन उनका ‘मोदी डिरेन्जमेंट सिंड्रोम’ उनकी रिपोर्टिंग से भी अधिक सुर्खियाँ बटोर रहा है।
यहां तक कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी वॉशिंगटन पोस्ट की पूर्वाग्रहता पर तंज कसने से कभी नहीं चूकते।[8] हालांकि, तथ्य-आधारित खंडन के साथ एक प्रतिवाद लेख के बजाय, पोस्ट और उसके पालतू ब्राउन नौकर ने और भी नीचता पर उतरते हुए सोशल मीडिया हैंडल को निशाना बनाया, बार-बार अपनी झूठी रिपोर्टों को उजागर किया।
वर्मा की पत्रकारिता के इस स्तर पर, उन्होंने भारतीय सोशल मीडिया हैंडल्स के खिलाफ एक हिट जॉब किया, जिन्होंने लगातार वॉशिंगटन पोस्ट के एजेंडे को उजागर किया है। इसके लिए, वर्मा ने एक अमेरिकी राजनीतिक टिप्पणीकार, जैक पोसोबिक से संपर्क किया, इस उम्मीद में कि उन्हें ‘डिसइन्फो लैब्स’ नामक भारतीय हैंडल के बारे में कुछ मसालेदार जानकारी मिलेगी, जिसके पोस्ट पोसोबिक द्वारा साझा किए गए थे।
एक डायरेक्ट मैसेज में, प्रण्शु वर्मा ने खुलासा किया, “हम ‘डिसइन्फोर्मेशन लैब’ नामक समूह पर एक कहानी कर रहे हैं। उन्होंने जैक पोसोबिक से कहा, “हमारी रिपोर्टिंग से पता चलता है कि यह समूह तथ्यों पर आधारित शोध को बिना आधार के दावों के साथ मिलाता है ताकि अमेरिकी सरकारी आंकड़ों, शोधकर्ताओं, भारतीय अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय संगठनों को एक षड्यंत्र का हिस्सा दिखाया जा सके, जिसे कथित तौर पर वैश्विक इस्लामी समूहों और अरबपति जॉर्ज सोरोस द्वारा भारत को कमजोर करने के लिए चलाया जा रहा है। हमारा विश्लेषण यह दर्शाता है कि आपने इस संगठन की सामग्री को रीट्वीट किया है,” और बिना कोई सबूत दिए ये भी कहा, “क्या आप संगठन की पृष्ठभूमि के बारे में जानते हैं? हमारे शोध से पता चला है कि डिसइन्फो लैब वास्तव में एक भारतीय खुफिया अधिकारी द्वारा चलाई जाती है। क्या आपको यह पता था?”
वर्मा को उम्मीद थी कि पोसोबिक भारत के खिलाफ एक आलोचक प्रलाप करेंगे, लेकिन उनके जवाब ने वॉशिंगटन पोस्ट के आधे-अधूरे प्रबंधकों और वर्मा के मुहँ पर कालिख पोत दी। पोसोबिक ने जवाब में लिखा, “तो अगर यह एक खुफिया एजेंसी द्वारा संचालित मीडिया आउटलेट है, तो यह वॉशिंगटन पोस्ट के समान ही है, है ना?” जिसमें उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट और उसके अनुचरों को अमेरिकी खुफिया के पालतू कुत्तों[9] के रूप में व्यंग्यात्मक रूप से संदर्भित किया।
हमेशा की तरह, वर्मा ने पोसोबिक के जवाब को चतुराई से टाल दिया और इसे अपनी रिपोर्ट से बाहर रखा। लेकिन पोसोबिक ने पूरी बातचीत को ट्विटर/एक्स पर साझा कर दिया, जिससे वर्मा और वॉशिंगटन पोस्ट एक बार फिर शर्मिंदा हो गए।
डिसइन्फो लैब्स का जवाब और वॉशिंगटन पोस्ट की प्रतिक्रिया
डिसइन्फो लैब्स ने वर्मा और वॉशिंगटन पोस्ट की प्रतिष्ठा को और भी अधिक ध्वस्त कर दिया यह कह कर कि उनकी पूरी रिपोर्टिंग पुराने पाकिस्तानी प्रोपेगैंडा पर आधारित थी, जिसमें दस चौंकाने वाले गुमनाम स्रोत थे, और एक भी तथ्य नहीं था।[10] हालांकि वॉशिंगटन पोस्ट को गहरी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा, पर अपनी बेवकूफी भरी कवरेज के लिए आज तक माफी नहीं मांगी। इस माफी मांगने के लिए एक अन्य उत्कृष्ट ब्राउन सिपाही की जरूरत पड़ी, जिसने अपने नियोक्ता (Washington Post) की संकीर्ण रिपोर्टिंग और स्पष्ट झूठ के लिए माफी मांगी।
अब मिलिए अवनि डायस से – ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की साउथ एशिया ब्यूरो चीफ।[11] डायस की ख्याति खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन के लिए उनके बिना लुकावट समर्थन, और कानून तोड़ने की प्रवृत्ति और फिर विक्टिमहुड का रोना रोने में है। डायस हाल ही में हर भारत-विरोधी गैंग की आंखों का तारा बन गई थीं, क्योंकि उन्होंने बेशर्मी से यह दावा किया कि मोदी सरकार उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर रही है और उन्हें चुनावों को कवर करने की अनुमति नहीं दे रही है, क्योंकि उनकी रिपोर्टिंग ने “एक रेखा को पार कर लिया था।”
उनकी शिकायत उनके भारत-विरोधी समूह में तेजी से वायरल हो गई। पर अवनी का दुर्भाग्य कि इंडिया टुडे के एक रिपोर्टर ने उनकी कहानी की जांच करने पर उसे एक शरारत और भ्रामक पाया।[12] “सुश्री डायस को अपने पेशेवर कार्यों के दौरान वीजा नियमों का उल्लंघन करते हुए पाया गया था।” इसके बावजूद, उन्हें भारत सरकार ने आश्वासन दिया गया कि उनके वीजा को चुनावों की कवरेज के लिए बढ़ाया जाएगा, और उसी दिन उनके वीजा को जून के अंत तक बढ़ा दिया गया।
डायस ने 20 अप्रैल को भारत छोड़ने का फैसला किया, जबकि उस समय उनका वीजा वैध था, और उनके वीजा बढ़ाने की मंजूरी दे दी गई थी। स्पष्ट है डायस ने अपनी हद पार कर ली थी और कानून का उल्लंघन कर रही थी, जबकि उनके एबीसी के दो साथियों को चुनाव कवरेज के लिए अनुमति पत्र मिल गए थे। इसके बावजूद, डायस ने बिना क्षमा मांगे बकवास कहानियाँ गढ़ने का मिशन जारी रखा: “उन्होंने एक वीडियो में झूठे दावे किए जिसका शीर्षक था ‘भारत के नरेंद्र मोदी के पीछे की कहानी’, जिसका उद्देश्य यह दिखाना था कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत का धर्मनिरपेक्षता खतरे में है।”
हालांकि, इस बार उनकी काल्पनिक अटकलें एबीसी न्यूज के लिए भी शर्म का कारण बन चुकी थीं। उन्होंने अपनी टूटी फूटी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए स्वीकार करना पड़ा कि अवनि डायस का यह दावा कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ 1947 से भारतीय संविधान का हिस्सा है, स्पष्ट रूप से फर्जी था।[13]
डिरेन्जमेंट अरेंजमेंट: मीडिया का खेल और उसकी वास्तविकता
भारत की छवि को धूमिल करने और अपनी संगठनों को बदनाम करने वाले ब्राउन सिपाहियों के कुछ उदाहरणों का विश्लेषण किया, लेकिन ऐसा ही व्यवहार पश्चिम के विभिन्न वामपंथी मीडिया स्थानों में भी देखा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन मीडिया संगठनों का हिस्सा बनने के लिए भारत और हिंदुओं के खिलाफ बुरा बोलना अनिवार्य बन चुका है। सवाल यह है कि जैसे भारतीय मीडिया संगठनों ने इन वैश्विक मुखपत्रों की झूठी बातों को खारिज करने का प्रयास किया है, वैसे ही अन्य प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने इन झूठी कहानियों को क्यों नहीं उजागर किया? यदि वॉशिंगटन पोस्ट जानबूझकर भारत पर एक झूठी कहानी प्रकाशित करता है, तो न्यूयॉर्क टाइम्स (NYT) या वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ) उन्हें क्यों नहीं चुनौती देते?
इसका उत्तर सरल है: वामपंथी मीडिया में हर कोई अपनी मान्यता को कायम रखने के लिए एक-दूसरे के साथ तालमेल बनाए रखता है। “अमेरिकी विमर्श की असंवेदनशीलता भयावह है,” कहते हैं डॉ. किशोर महबूबानी – एक सिंगापुरी राजनयिक और भू-राजनीतिक सलाहकार, जिन्होंने 2001 और 2002 के बीच संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। महबूबानी का मानना है कि न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल और अन्य अमेरिकी मीडिया के पत्रकारों के बीच “स्वयं-सम्बंधित विमर्श” होता है। “वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को सुदृढ़ करते हैं और अंत में वे हालातों को सही तरीके से समझ नहीं पाते।“[14] हालांकि यह विश्वास करना कठिन है, लेकिन इन तथाकथित पत्रकारों में से अधिकांश एक प्रतिध्वनि कक्ष (echo chamber) में रहते हैं, जहाँ उनके विचार और धारणाएँ केवल उनके अपने घेरे में गूंजती रहती हैं।
एक अध्ययन में पाया गया कि वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता वास्तव में सामाजिक न्याय और समानता के लिए काम नहीं कर रहे हैं। वे केवल अपनी आत्म-केंद्रित ज़रूरतों को पूरा करने के लिए राजनीतिक सक्रियता का उपयोग करते हैं, और कभी-कभी इस सक्रियता के माध्यम से दूसरों के खिलाफ हिंसा को भी बढ़ावा देते हैं। इस तरह के मनोवैज्ञानिक व्यवहार के लिए एक नया शब्द गढ़ा गया है: डार्क-इगो-व्हीकल प्रिंसिपल (The dark-ego-vehicle principle)।[15] “इस सिद्धांत के अनुसार नार्सिसिस्टिक और साइकोपैथिक लक्षणों वाले व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे वे अपने आत्म-केंद्रित ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक वाहन के रूप में उपयोग कर सकते हैं, बजाय इसके कि वे सामाजिक न्याय और समानता की ओर लक्ष्य करें।” विशेष रूप से, सक्रियता के कुछ रूप उन्हें सकारात्मक आत्म-प्रस्तुति और नैतिक श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने, सामाजिक स्थिति प्राप्त करने, दूसरों पर प्रभुत्व जमाने, और सामाजिक संघर्षों और आक्रामकता में शामिल होने के अवसर प्रदान कर सकते हैं।[16]
यानि कि इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि ये कार्यकर्ता जिस आचरण के लिए जोर शोर से चिल्लाते रहते हैं, उसका एक दम उलट काम करते हैं। शोध में यह भी पाया गया कि सामाजिक न्याय का उपयोग अक्सर इन कार्यकर्ताओं के लिए असंतुलित व्यवहार करने के लिए एक ढाल के रूप में किया जाता है। वर्मा और डायस जैसे लोग केवल दिखावे के लिए होते हैं, जो कुछ ध्यान आकर्षित करने के लिए इधर-उधर घूमते रहते हैं। उनकी रिपोर्टिंग कभी भी नैतिकता, ईमानदारी, या निष्पक्षता के बारे में नहीं होती; जो कुछ भी वे लिखते हैं, वह केवल कूड़ेदान में फेंकने योग्य होता है।
और फिर भी, इन परजीवियों को नज़रअंदाज करने की गलती नहीं करनी चाहिए। उनकी लगातार भेदभावपूर्ण रिपोर्टिंग ने पागल लोगों को ट्रम्प और मोदी जैसे नेताओं के खिलाफ हथियार उठाने के लिए उकसाया है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जो केवल हिंसा और विभाजन को बढ़ावा देती है, और यह बताती है कि मीडिया की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण और संवेदनशील हो सकती है, जब इसे सही तरीके से नहीं निभाया जाता।
‘Let them eat cake’: मीडिया के झूठों के भयंकर परिणाम
फ्रांसीसी शाही परिवार की बात करते समय यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि मैरी एंटोनेट एक सुरुचिपूर्ण और संवेदनशील राजकुमारी थीं। लेकिन मीडिया को एक ख्यालनायक या खलनायिका की आवश्यकता थी, जो उन्होंने ने मैरी एंटोनेट को बदनाम करके पूरी की। उन्होंने कहानियाँ और लेख छापे, जिनमें उनके परिवार और उनके दरबारियों को बढ़ा-चढ़ाकर, काल्पनिक किस्सों और स्पष्ट झूठ के साथ निंदा की गई।[17] उन्होंने मैरी एंटोनेट के बारे में एक सफेद झूठ गढ़ा, जिसमें कहा गया कि गरीब लोगों के पास अगर खाने को ब्रैड नहीं है तो वो “केक खाएं।”
फिर भी, मीडिया ने बदले की भावना में एक तूफान खड़ा कर दिया, जब तक कि यह गुस्से में नहीं फट गया, जिसके कारण मैरी को अपनी जान खोनी पड़ी। उनके अंतिम शब्द “क्षमा” थे, जो उन्होंने अपने जल्लाद के पैर पर कदम रखने से पहले कहे थे, और फिर उनकी गर्दन काट दी गई। स्पष्ट है कि जब मीडिया सच्चाई और नैतिकता के किनारा कर लेता है, तो उसका प्रभाव बहुत घातक हो सकता है।
वामपंथी उदारवाद की खून में डूबी हुई जड़ें
हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि वामपंथी उदारवाद की जड़ें हमेशा खून में डूबी हुई हैं। ढाई शताब्दी पहले, उन्होंने मैरी एंटोनेट के खिलाफ भीड़ को उकसाया; और आज, ट्रम्प और मोदी जैसे नेताओं को उनके द्वेष की आग का सामना करना पड़ रहा है। उनकी अनियंत्रित रिपोर्टिंग कुछ पागल युवाओं को बिना सोचे-समझे बंदूक उठाने के लिए गलत तरीके से प्रेरित कर रही है। यह प्रवृत्ति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, बल्कि समाज में एक विभाजनकारी और हिंसक माहौल को भी जन्म देती है।
“उदारवाद मानवता का पशुओं में रूपांतरण है,” फ्रेडरिक नीत्शे की यह उक्ति आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है, जहाँ मीडिया और राजनीति के खेल में नैतिकता और सच्चाई का स्थान गौण हो गया है।
संदर्भ
[1] Zenko, Micah. 2016. “The Big Lie About the Libyan War.” Foreign Policy; https://foreignpolicy.com/2016/03/22/libya-and-the-myth-of-humanitarian-intervention/
[2] Ali, Ayaan H. 2024. “Trump Derangement Syndrome Draws Blood.” Restoration, with Ayaan Hirsi Ali. https://www.restorationbulletin.com/p/trump-derangement-syndrome-draws
[3] Malviya, Amit. 2024. “Amit Malviya on X: ““If Trump wins an election… that our country will end, our democracy, our constitution will end, its the last election we’ll ever have…” This kind of vile rhetoric against Trump led to an assassination bid. The man responsible, owes a.” X.com. https://x.com/amitmalviya/status/1812430531985891692
[4] Correia, Larry. 2024. “A year ago, here in Utah, Joe Biden was coming for a visit.” Twitter/X. https://x.com/monsterhunter45/status/1813339372600918161
[5] Sawant, Nitin. 2024. “Digital Jihad: The Rise of Anti-India Propaganda in E-Papers.” Stop Hindudvesha. https://stophindudvesha.org/digital-jihad-the-rise-of-anti-india-propaganda-in-e-papers/
[6] Ali, Ayaan H. 2024. “Trump Derangement Syndrome Draws Blood.” Restoration, with Ayaan Hirsi Ali. https://www.restorationbulletin.com/p/trump-derangement-syndrome-draws
[7] Dutta, Dibakar. 2023. “Washington Post and its hit job on ‘Disinfo Lab’: Exposing the nefarious campaign to discredit Indian OSINT handle before 2024 Lok Sabha election.” Opindia. https://www.opindia.com/2023/12/washington-post-hitjob-against-disinfo-lab-anti-india-propaganda-before-2024-elections/#google_vignette
[8] Times Now. 2022. “S. Jaishankar Takes A Dig At American Media, Slams ‘Biased’ Coverage Of India.” YouTube. https://www.youtube.com/watch?v=95Mjl9-9kTE
[9] Poso, Jack. 2023. “Some guy claiming to be from the Washington Post, just sent me a long text message alleging that I retweeted a post from an Indian intel agency-run media outlet.” X/Twitter. https://x.com/JackPosobiec/status/1733196605015081141
[10] DisInfo Labs. 2023. “X/Twitter.” In a long English word salad, a quarter dozen WaPo journalists in a hit piece have tried painting us somewhere between RW & RAW (no pun intended). https://x.com/DisinfoLab/status/1734430299264848077
[11] Indian Constitution – ABC News; https://www.abc.net.au/news/corrections/2024-06-27/indian-constitution/104031664
[12] Mohan, Geeta. 2024. “Geeta Mohan گیتا موہن गीता मोहन (@Geeta_Mohan) on X.” X.com. https://x.com/Geeta_Mohan/status/1782796163437265216
[13] Sharma, Nupur J. 2024. “ABC News issues ‘clarification’ after Avani Dias lies about Indian constitution in anti-Modi documentary.” OpIndia. https://www.opindia.com/2024/06/australian-broadcasting-news-issues-correction-avani-dias-lies-about-secularism-indian-constitution-in-anti-modi-documentary/
[14] World Politics. 2023. “Singaporean Diplomat: The Insularity of American Discourse is Frightening.” YouTube. https://www.youtube.com/watch?v=a8DrHffVcTM
[15] Alex Bertrams, Ann Krispenz. 2023. “Understanding left-wing authoritarianism: Relations to the dark personality traits, altruism, and social justice commitment.” Springer. https://link.springer.com/article/10.1007/s12144-023-04463-x
[16] Mitchell, Alex. 2023. “Left-wing extremism linked to psychopathy, narcissism: study.” NY Post. https://nypost.com/2023/05/25/left-wing-extremism-linked-to-psychopathy-narcissism-study/
[17] Wikipedia. 2016. “Let them eat cake.” https://en.wikipedia.org/wiki/Let_them_eat_cake